सुखी होनेका सर्वोत्तम उपाय

सुखी होनेका सर्वोत्तम उपाय



जब तुम्हारा साधन नहीं होता, तुम्हारा भजन नहीं होता तब विपत्ति आ गयी । नहीं तो विपत्ति है ही नहीं । इसीलिए साधक लोग विषयी लोगों के उलटे मतवाले होते हैं । विषयी जहाँ मान चाहते हैं , वहाँ साधक मान से डरते हैं । विषयी जहाँ स्तुति चाहते हैं , वहाँ साधक स्तुति से डरते हैं , निंदा को अपनाते हैं । विषयी जहाँ भोग-सुख चाहते हैं साधक वहाँ भोग-सुख से डरते हैं । कहीं इनमे मन फंस न जाय । कहीं भोगों में साधक को रहना पड़ता है तो बड़े चौकन्ने रहते हैं कि कहीं फिसल न जायं । जितना भी यह भोग क्षेत्र है , सब फिसलने की जगह है । बड़ी सावधानी की जगह है । जरा-से-में भगवान की विस्मृति हो जायेगी और भोग आकार सवार हो जायेंगे । अभी दुःख क्यों है ? भोगियों को देखकर दुःख है । सब एक से हो जायं तो दुःख रहे ही नहीं भोगों की महत्ता  हमारे मन में है कि अमुक के पास भोग है और हमारे पास नहीं है । उसके पास इतना बड़ा मकान है और मेरे पास रहने की झोपडी नहीं है , इसलिये दुखी है । अमुक का इतना सम्मान है और हमारा नहीं है । अमुक की इतनी प्रशंसा होती है हमारी निंदा होती है । लोग क्या कहेंगे ? अरे, अपने कान बंद कर लो । लोगों को मत देखो लोग अपना कह सुन-करके चुप हो जायेंगे ।निंदा उसकी होती है जो निंदा को निंदा मानता है । प्रशंसा उसकी होती है जो प्रशंसा मानता है । साधक लोगों की उक्तियों को सुनेगा नहीं और सुनेगा तो मन ही मन हँसेगा कि देखो , बेचारे कितने भोले हैं जो जगत के पदार्थों में सुख दुःख की कल्पना करते हैं । उसको सुख दुःख नहीं होगा । संसार की निंदा-स्तुति , मान-अपमान ये आने जाने वाले हैं।यही तो मोह है कि दुखों की उत्पत्ति के स्थान हैं भोग और उनके लिए हम रोयें । वे मिलें तब हम उनके लिए सुखी होवें । जहर पीकर अमीर होना चाहता है । तुलसीदास जी कहते हैं किविषयरुपी जहर को माँग-माँगकर पीता है । तब भगवान हँसते हैं । यह दुःख को लेकर सुखी होना चाहता है । जो भोग दुःखयोनि हैं, वे सुख देंगे कहाँसे ! भोगों में आस्था , भोगों में ममता , भोगों के लिए चेष्टा , भोगों का संचय , भोगों की प्राप्ति – ये सब दुःख पैदा करने  वाले हैं ; क्योंकि यह भोग जगत है दुःखरूप । इसमें जो सुख है, वह केवल भगवान हैं । अगर जगत मे भगवान को देखें और भगवान् को पकड़ लें और भगवान् के साथ मनको जोड़ ले , तब तो यहाँ दुःख है नहीं ।जीवन में सुख आएगा दुःख लेकर । जगत भयानक दुःख रूप है – यह समझकर भोग पर आस्था मिटी कि भगवान् में विश्वास हुआ – ऐसा होने पर जगत भगवान् कि लीला होने के कारण से दुखरूप नहीं रहेगा । भगवान् कभी सुख का रूप धरकर आ गया और कभी दुःख के रूप में आ गया । कैसा लीलामय है । यह कैसी – कैसी लीलाएँ करता है ! यह लीला देखो और मौज में रहो । फिर ये दुःख नहीं रहेंगे । ये सब भगवान् की  लीलाएँ रहेंगी । 

  

सुखी होनेका सर्वोत्तम उपाय



जबतक हमारे मन में कामादि दोष भरे हुए हैं और जब तक उन दोषों  के कारण से हम जगत के प्राणी-पदार्थ की आशा रखते हैं एवं भगवान पर विश्वास नहीं करते , तबतक हम भगवान पर निर्भर कहाँ हुए और निर्भर हुए बिना भगवान अपने मन की क्यों करें ? करते तो अपने मन की ही हैं , परन्तु हमें नहीं जँचता; इसलिए की भगवान अपने मन की करके हमारा मंगल कर देंगे । हम अपने मन के मंगल में भगवान की कृपा मानते हैं । अपने मन का मंगल न मिलने पर अकृपा मानते हैं । इसलिए हमारे मंगल-अमंगल की कल्पना हमारे मनमे प्रधान है । भगवान की कृपा प्रधान नहीं है । इसलिए हम दुखी हैं और यह दुःख कभी मिटने का नहीं ; क्योंकि कहीं आशा पूरी होगी तो नयी आशा आ जायगी और आशा पूरी नहीं होगी तो न पूरा होने का दुःख होगा ; क्योंकि जगत की आशा कभी पूरी  होती ही नहीं है  ।

    ‘बुझै न काम अगिनि तुलसी कहूँ , बिषय-भोग बहु घी ते ।।’

जैसे आग में घी डालते जाओ तो आग बुझेगी ही नहीं । इसीप्रकार भोगों की प्राप्ति से भी कामना की आग बुझेगी ही नहीं । इसीलिए भोगों की आशा से यहाँ कभी सुख न किसी को मिला है न मिल सकता है और न ही मिलेगा । भूगों की आशा तो छोडनी ही पड़ेगी यदि सुखी होना है तो । जहाँ यह आशा छूटी , फिर प्रत्येक अवस्था में सुख है । पांच सात चीजें हमने ऐसी मान रखी हैं , जिनका नाम दुःख है । निंदा , अपमान, शरीर रोगी हो गया , धन नहीं रहा , खाने-पीने-पहनने का आराम नहीं रहा, लोग पूछने वाले नहीं रहे इत्यादि ।  इन्ही सब का नाम तो दुःख है न । ये सब चीजें जो शरीर नश्वर है, उसके साथ – नश्वरता के साथ लगी हैं । जिनके पास हैं , उनकी भी रहेंगी नहीं । इनका तो वियोग होगा ही , इनसे सम्बन्ध तो छूटेगा ही , इनसे ममत्व रहेगा ही नहीं । अगर हम यह समझ लें कि हमारे भगवान ही इन दुखों का विधान करते हैं हमारे मंगल के लिए । हमारे भगवान ही इन दुखों के रूप में आकार स्पर्श कराते हैं । विश्वास ही तो है । भाव पलटा और ये चीजें मन में आयी कि इन चीजों का स्वाद न लो । भगवान के दर्शन जिसमे मिले वही संपत्ति है और भगवान के दर्शनों को जो हटा दे वही विपत्ति है । 


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अब आगे ....

यदि कृपा पर विश्वास हो तो परिस्थिति कुछ भी हो , प्रत्येकपरिस्थिति में भगवान की कृपा की अनुभूति होती है भगवद-विश्वासी पुरुष को । परिस्थिति में भगवान की कृपा का सत्कार और तिरस्कार हो तो परिस्थिति की  महत्ता है , कृपा की महत्ता नहीं है। कृपा की महता क्यों नहीं है ? इसलिए कि विश्वास नहीं है । यह तो सीधा अमंगल हो रहा है, इसमें कृपा कहाँ है ? हमारा जो मंगल है, उस मंगल की भावना हमारे मन की कल्पना ही है । भगवान जो करते हैं हमारा मंगल ही करते हैं ,यह हमारा विश्वास नहीं ।
            इसलिए साधक के लिए भगवद-विश्वास परम आवश्यक है  और अन्य सबके लिए भी आवश्यक है । जगत में जो सुखी होना चाहता है उसके लिए परम साधन है – भगवद-विश्वास ।
            ‘मसकहि करइ बिरंचि प्रभु अजहि मसक ते  हीन ।’
                               (रा० च० मा० ७|१२२ ख)                 
भगवान यदि चाहें तो मच्छर को ब्रह्मा बना दें और ब्रह्मा को मच्छर से भी हीन कर दें ।
                    ‘मेटत कठिन कुअंक भाल के ।।’  
भाल के जो कठिन कुअंक है , वह भगवान की कृपा हो तो मिट जायं |

गरल सुधा रिपु करहिं मिताई । गोपद सिंधु अनल सितलाई ।।
                                        (रा० च० मा० ५|५|२|)
उनकी कृपा से उल्टा काम हो जाय । वह तो कर्तुम अकर्तुम अन्यथाकर्तुम समर्थ हैं। इसीलिए उनका नाम भगवान है , परन्तु हम उनपर छोड तब न । उनपर छोड दें सर्वथा उनपर निर्भर हो जाएँ , सर्वथा मनमें कामादि दोष न रहें ।   



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अब आगे ....
जितने भी संत-महात्माओं के चरित्र हैं, संतों की वाणी है , वह इसी बात को सिद्ध करने के लिए हैं , जिस से हमारा भगवान् पर विश्वास हो जाये । कोई स्थिति अगर भगवान् के विश्वास को हटा देती है तो फिर विश्वास कहाँ ? वह विश्वास तो परिस्थिति पर है ।अमुक परिस्थिति हो तो भगवान् की कृपा और अमुक परिस्थिति न हो, तब भगवान् की कृपा नहीं । यहाँ तो कृपा निर्भर कर रही है परिस्थिति पर । भगवान् की कृपा अखण्ड है, अपार है, अनन्त है, अचल है,सर्वदा है और सर्वथा है – यहाँ बात तो हमारे द्वारा नहीं मानी गयी , तब फिर हमारी दृष्टि में परस्थिति के अधीन ही भगवान् के कृपा की मान्यता हुई । अगर हमारे मनके अनुकूल परिस्थिति है तो भगवान् की कृपा और मनके प्रतिकूल परस्थिति हुई तो भगवान् की कृपा नहीं हुई । कहते हैं लोग कि उसपर तो भगवान् की बड़ी कृपा है और हम पर भगवान् का कोप हो रहा है । न मालूम क्या बात है कि भगवान् की कृपा तो हम पर होती ही नहीं है ।होती नहीं का क्या अर्थ है ? कि हमारे मन के अनुकूल परस्थिति आती नहीं है । वह स्थिति आ जाय, तब भगवान् की कृपा और न आये तो कृपा नहीं । हमने परिस्थिति को कृपा मान लिया है ।
             

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                       नवरात्री के पर्व ही हार्दिक शुभकामनाएं

गत  से आगे .......             
 जैसे सूर्य और रात्रि दोनों  एक साथ एक जगह नहीं रह सकते, इसी प्रकार से भोग और भगवान् भी एक साथ नहीं रह सकते । भोग या तो भगवान् के दास होकर रहेंगे और नहीं तो नहीं रहेंगे ।अगर भोग भगवान् के समकक्ष होकर रहते हैं तो वहाँ भगवान् छिप जायेंगे । हमारे हृदयों में भगवान् छिपे हुए हैं; क्योंकि जिस विश्वाससे भगवान् प्रकट होते हैं, वह विश्वास हम में नहीं है । भगवान् को तो आवश्यकता है नहीं कि उसको कोई माने, तब वे कोई चमत्कार दिखलायें । हम यदि विश्वास नहीं करते तो हम भगवत्कृपा से वंचित रह जाते हैं ।
       बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु ।
       राम  कृपा  बिनु  सपनेहुँ  जीव   न  लह   बिश्राम ।।
                                       (रा० च० मा० ७|९० क )
राम की कृपा के बिना तो जीव को शान्ति मिलती नहीं है और सबपर नित्य बरसने वाली रामकृपा का अनुभव बिना विश्वास के होता नहीं है । इसलिए भगवान् पर विश्वास हो और भोगों से निराशा हो ।
         ‘आशा ही परमं दु:खं नैराश्यं परमं सुखम् ।’
भगवान् कहते हैं – ‘ निराशीर्निर्ममो  भूत्वा ’ (गीता ३।३०) आशा छोड़कर , ममता छोड़कर युद्ध करो । भागवत में आया है कि जगत की आशा ही परम दु:खरूप है और जगत से निराशा ही परम सुख है । परन्तु यह जगत की आशा, विषयोंकी आशा तबतक हमारे मनसे दूर नहीं होगी जबतक हमें भगवां पर विश्वास नहीं होगा ।  
शेष  आगे के ब्लॉग में


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