आजादी नशा मुक्ति-पॉजिटिव चीज भीतर डालिये।-Put the freedom addiction-positive thing.

 आजादी नशा मुक्ति-पॉजिटिव चीज भीतर डालिये।-Put the freedom addiction-positive thing.
आज देश के युवाओं में नशे की लत तेज़ी से बढ़ रही है। पंजाब के युवाओं की सेना में एक गौरवशाली परम्परा रही है, मगर अब वहां होने वाली भर्तियों में युवा चक्कर लगाने के दौरान गश खाकर गिर रहे हैं। कई राज्यों में स्कूली बच्चों द्वारा ब्रेड के साथ आयोडेक्स व कुछ दवाईयों का नशे के तौर पर इस्तेमाल की घटनाएं बहुत हो रही हैं। छत्तीसगढ़ में तो नशामुक्ति के लिए भारत माता वाहिनी का गठन करना पड़ा है। पारम्परिक रूप से, नशाखोरी को घरेलू हिंसा के परिप्रेक्ष्य में ही देखा जाता रहा है, मगर अब यह राष्ट्रीय चिंता का विषय बनती जा रही है। लिहाजा, शराबबंदी का बिहार सरकार का फैसला विचारणीय है, क्योंकि इस समस्या का निर्णायक समाधान तभी संभव है जब हम यह समझ लें कि आखिर लोग नशे के आदी क्यों हो जाते हैं?
असली कारण कहीं अधिक गहरा है।
अभी हमारा ध्यान इस बात की तरफ गया ही नहीं है कि कोई भी आदत मूर्च्छा के कारण पैदा होती है। आदत अच्छी हो, तो भी मूर्च्छा तो निश्चय ही नुक़सानदेह है। इस दिशा में सोचे बगैर, कोई भी अभियान दूरगामी रूप से असरकारक साबित नहीं होगा।
मोटे तौर पर, हमारी आदतें तीन प्रकार की हैं। :-
1) पहली श्रेणी में आप दांतों से नाखून या चुइंगम चबाने जैसी आदतों को रख सकते हैं। ऐसी आदतें आसामाजिक और अशोभनीय तो हैं, किंतु न्यूट्रल होती हैं। न कोई लाभ, न नुकसान।
2) दूसरे प्रकार की आदतें वे हैं जिनका शारीरिक या मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है जैसे- सिगरेट, तम्बाकू, गुटखे, अधिक भोजन, शराब, मादक पदार्थ आदि। क्रोध भी एक आदत है। कुछ आदतें अनजाने में बन जाती हैं। जैसे अगर किसी दफ्तर में कुछ लोग सिगरेट पीते हों तो वहां बैठे बाकियों को भी पैसिव स्मोकिंग की लत पड़ जाती है।
3) तीसरी आदतें वे हैं जो हमारे शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक सबलता और भावनाओं की मजबूती में उपयोगी हैं। जैसे, जिसे सुबह उठने की आदत हो, उसके पास दिन में काफी समय होगा कुछ भी करने के लिए। जो देर से जगेगा, उसके पास चूंकि समय कम होगा, लिहाजा उसके हर काम में जल्दबाजी और फिर नर्वसनैस होगी। ऐसे ही, जिसका खाना हल्का-फुल्का होगा, उसका स्वास्थ्य उस व्यक्ति की तुलना में निश्चय ही अच्छा होगा जो तला, मिर्च-मसालेयुक्त, गरिष्ठ भोजन करता है।
आदत कोई भी हो, उसकी जो बुनियाद है, वह है- एक प्रकार की मूर्च्छा, प्रमाद। व्यक्ति एक प्रकार की बेहोशी में होता है और वही-वही किये चला जाता है। वह आदत कब और कैसे शुरु हुई, इसका ख्याल भी नहीं रहता। अगर यही बात ख्याल में आ जाए तो वह आदत छूटनी शुरु हो सकती है। किसी भी प्रकार के नशे से मुक्त होने के लिए यह गौर करना ज़रूरी है कि आपके जीवन में ऐसी कौन सी आदत है जो आपके व्यक्तित्व, शरीर या मन को नुकसान पहुंचा रही है। संभव है, वह कहीं दूर, बचपन की कोई चीज हो, जिसे आप भूल भी चुके हों। इसलिए, यहां यह समझना उपयोगी होगा कि आदतें शुरु कैसे होती हैं।
अगर कोई मां अपने बच्चे पर ज्यादा ध्यान न दे तो उसमें असुरक्षा की भावना पैदा हो जाती है। कभी उसे भूख लगे और मां कहे कि अभी नहीं; अभी मैं बिजी हूं, एक घंटे बाद दूंगी। हो सकता है वह सममुच में बिजी हो। मगर बच्चा तो नियम से नहीं चलता, उसको तो घड़ी देखकर भूख नहीं लगती। जब भूख लगती है, तब मांगता है। इसलिए, अगर उसको भोजन न मिले समय पर, तो उसके मन में एक डर बैठ जाता है कि पता नहीं, जब भूख लगेगी, मां देगी या नहीं। इसलिए जब भोजन मिलेगा, तब वह ज्यादा भोजन कर लेगा। यह बच्चा जब बड़ा होगा, तब भी उसमें ओवर ईटिंग की आदत बनी रहेगी। धीरे-धीरे वह ज्यादा वज़न से होने वाली बीमारियों से घिर जाएगा। डाक्टर मना करते रहें कि कम खाओ, लेकिन अब उसके वश के बाहर है। बौद्धिक रूप से वह समझता भी है कि उसे ज्यादा नहीं खाना चाहिए, लेकिन यह बुद्धि उस समय काम नहीं करती, जब थाली सामने होती है।
बाकी समय वह बहुत समझदार है, मगर ये तर्क उस समय काम नहीं आते, जब थाली उसके सामने होती है। वस्तुतः, हमारा तर्कशील मन बहुत छोटा सा है। हमारे दिमाग़ का केवल बारह 12 प्रतिशत हिस्सा कॉन्सस मांइड यानी चेतन है और बाक़ी 88 प्रतिशत सबकॉन्सस मांइड यानी अवचेतन है। जब भोजन की थाली सामने आती है तब ओवर ईटिंग की आदत वाले व्यक्ति का चेतन मन सक्रिय नहीं रह पाता और उसका सबकॉन्सस मांइड टेकओवर कर लेता है। अगर वह दो-चार दिन जिद करके कम भी खा ले, तो भी यह मामला ज्यादा लंबा नहीं चल सकता। इसीलिए, बहुत से लोग जाते हैं नेचरोपैथी केंद्रों में। वहां खान-पान की एक विशेष प्रकार की व्यवस्था और व्यायाम को स्वीकार करने की मज़बूरी के कारण महीने भर में उनका जो वज़न घटता है, वह संस्थान से निकलने के कुछ ही महीने के भीतर फिर पूर्ववत् हो जाता है।
ऐसे ही, बीड़ी- सिगरेट, शराब आदि की लत बच्चों में कैसे पड़ती है, इसे लेकर भी मनोवैज्ञानिकों ने खूब अध्ययन किया है और वे बड़े विचित्र नतीज़ों पर पहुंचे हैं। उनका कहना है कि छोटा बच्चा जल्दी से जल्दी बड़ा होना चाहता है। आप बड़ों को सुहाने बचपन के गीत गाते सुनेंगे, मगर यथार्थ में ऐसा है नहीं। कोई बच्चा खुश नहीं है बच्चा होने से। उसको लगता है- मैं शक्तिहीन हूं, स्वयं कोई निर्णय नहीं ले सकता। छोटी सी छोटी चीजों के लिए दूसरों से पूछना पड़ता है, मेरी कोई स्वतंत्रता नहीं है। बड़े लोग स्वतंत्र हैं। इसलिए, बच्चा जल्दी बड़ा होना चाहता है।
फिर वह गौर करता है कि बड़े लोग क्या-क्या करते हैं। जब वह देखता है कि ये गुटखा खाते हैं, शराब का सेवन करते हैं, बीड़ी-सिगरेट पीते हैं, तो वह इन आदतों को बड़ेपन का लक्षण मानने लगता है। धीरे-धीरे वह स्कूल में, बाथरूम में चोरी-चोरी नशा करना शुरु कर देता है। ऐसा भी नहीं कि उसे अच्छा लगता है यह सब। उल्टा, खांसी आती है, छींक आती है, दम घुटता है। शुद्ध हवा, पानी छोड़कर धुएं को, शराब को भीतर ले जाना किसे अच्छा लगेगा। लेकिन उसे मजा आता है कि मैं भी बड़ों जैसा हो गया। वह एक प्रकार की फ्रीडम का मज़ा ले रहा होता है। मगर धीरे-धीरे यही लत बन जाता है। और जब-जब उसको हीनताभाव पकड़ेगा, लगेगा कि मैं दुर्बल हूं, कोई और मुझपे हावी हो रहा है, तब-तब वह शराब के पैग या सिगरेट निकालेगा और उसे भीतर खींचेगा। यह उसको भीतर से एक प्रकार की तसल्ली देता है कि मैं दीन-हीन, कमजोर नहीं हूं!
किसी दिन बॉस उसे डांटता है। बॉस के सामने तो कुछ नहीं कह सकता लेकिन स्थिति उसकी वही हो गयी जो छोटे बच्चे की थी। जैसे छोटा बच्चा माता-पिता के आगे, ठीक वैसे ही यह आदमी अपने बॉस के आगे- हर प्रकार से निर्भर। पलट के जबाव भी नहीं दे सकता। वह एक बार फिर हीनता की अनुभूति करेगा। इसलिए, वह फिर कहीं जाकर शराब-सिगरेट निकालेगा और बड़े तैश में उसे अपने अंदर लेगा। इस तरह वह बॉस से भी श्रेष्ठ और ताकतवर बनने की अनुभूति करता है उस समय। इससे उसको जो संतोष मिलता है, उसमें हीनता का उसका वह बोध तत्काल छिप जाता है।
अब अगर ऐसे आदमी के हीनता-बोध को, कमजोरी को, समझे बगैर हम उसे समझायें कि शराब-सिगरेट से क्या-क्या नुकसान होते हैं और डेटा दिखायें कि इतने प्रतिशत पीने वालों को कैंसर हो गया, तो वह यह तो मानता है कि बातें सारी ठीक हैं; लेकिन सवाल यह है कि जब बॉस ने डांटा तब वह क्या करे? तब वह सोचता है, भाड़ में जाए कैंसर। जब होगा, देखा जाएगा। सवाल अभी का है, इस क्षण क्या करना? और फिर, उसके पास दूसरे तर्क भी हैं जो आपसे कह नहीं रहा और वह यह कि जो नशा नहीं करते, वे क्या अमर हो गये हैं? वह कहेगा कि कोई बात नहीं, हमको नहीं जीना लंबा। पांच साल कम ही सही, शान से जीएंगे। वह बाकी के कष्ट झेलने के लिए तैयार है।
ऐसे लोगों को समझाने-बुझाने का कोई लाभ तब तक नहीं होगा जब तक हम उनके ख्याल में यह न लाएं कि सबकॉन्सस माइंड में यह आदत कैसे बनी। नशा या ओवरईटिंग छोड़ने के लिए नकारात्मक सलाह का भी कोई लाभ नहीं होगा क्योंकि वह तो सैकड़ों लोग उससे कह चुके। वह तो खुद भी स्वीकार करता है कि छोड़ना है, कई बार कोशिश भी कर चुका है। मगर उसकी कोशिश काम नहीं आएगी क्योंकि वह चीज़ उसके वश के बाहर है। उसकी जड़ उसकी मूर्च्छा में है जिसका उसे होश नहीं है।
ऐसे कई प्रयोग हैं जिनसे यह मूर्च्छा आसानी से टूट सकती है और हम भीतर की आदतों की गुलामी से मुक्त हो सकते हैं। सम्मोहन के नियमित प्रयोग से इस प्रकार की आदतों को छोड़ना आसान है। इसके लिए हमें यह ख्याल करने की ज़रूरत नहीं कि ये आदतें कैसे छूटें। इसके उलट, हमें एक पॉजिटिव संकल्पना अपने भीतर डालनी होगी। जैसे, शराब की लत के बारे में कुछ न सोचकर, उस चित्र को याद करें जब आप सुडौल शरीर के स्वामी थे और भाव करें कि मैं फिर ऐसा हो गया हूं। एक खूबसूरत तस्वीर को अपने भीतर डालने का यह पॉजिटिव सजेशन काम करेगा, निगेटिव सजेशन के खिलाफ। लड़कर कोई नहीं जीत सकता। हमें पॉजिटिव पिक्चर भीतर डालनी होगी। हो सकता है, जिससे आप मुक्ति पाना चाहते हैं, वह एक से अधिक कारणों से हो। अगर ऐसा हो तो उसमें से जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो, उस एक बात पर फोकस करें। बिल्कुल रिलैक्स होकर ख्याल करिये कि इसकी शुरुआत कहां से हुई। आपसे अच्छा खोजबीन और कोई नहीं कर सकता। चिंतन-मनन से नहीं, भीतर से आने दें जवाब।
क्या नहीं होना चाहिए वह विचारने की बजाए, आप यह विचारिए कि आप क्या चाहते हैं। पॉजिटिव चीज भीतर डालिये। यह न सोचें कि मैं नशा नहीं कर रहा हूं;यह सोचें कि मेरे भीतर वह हीनता की ग्रंथि नहीं रही और मैं अपने आप में वैसे ही खुश हूं। मैं बड़ा हो चुका हूं और अपने निर्णय से अपनी जिंदगी जीता हूं। धीरे-धीरे आप पाएंगे कि नशे की कोई जरूरत ही न रही और आप सचमुच में बड़े हो गये।


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