आहार पौष्टिक ही नहीं, सात्विक भी हो-Nutritious diet not only be virtuous

आहार पौष्टिक ही नहीं, सात्विक भी हो-Nutritious diet not only be virtuous

मानवी सत्ता जिस प्रकार संवेदनशील है, उसी प्रकार उसके आहार में भी सम्पर्क क्षेत्र का प्रभाव ग्रहण करने की क्षमता है। इसी बात को यों भी कह सकते है कि मनुष्य का पाचन तन्त्र विलक्षण है, वह न केवल आहार से शारीरिक पोषण प्राप्त करता है, वरन् उसमें सन्निहित सूक्ष्म शक्ति एवं संवेदना भी ग्रहण करता है। जबकि अन्य प्राणी शरीर प्रधान होने के कारण मांस, रक्त मात्र ही प्राप्त करते हैं। यो चेतना के सम्पर्क से प्रभावित तो सभी पदार्थ होते हैं, पर यह विशेषता मानवी आहार में विशेष रूप से पाई जाती है, वह उगाने, पकाने, परोसने वाले व्यक्तियों से प्रभावित होती है। स्थानों में संव्याप्त भिन्न- भिन्न प्रकार के वातावरण उस पर अपनी छाप छोड़ते हैं। फलतः वह जिसके पेट में जाता है, उसके न केवल शरीर में वरन् मनःसंस्थान में भी भली- बुरी विशेषताएँ उत्पन्न करता है, जो अपने भीतर अर्जित कर रखी थी।

एक पुरानी लोकेक्ति है- जैसा खाये अन्न वैसा बने मन। तात्पर्य यह है कि आहार के साथ जुड़ी हुई विशेषताएँ न केवल शरीर को वरन् मन को भी प्रभावित करती है। चिन्तन के प्रवाह में हेर- फेर करती है। दृष्टिकोण को, स्वभाव को, रूझान को मोड़ने मरोड़ने में अपने स्तर का समावेश करती है। आहार में पाये जाने वाले पोषक पदार्थों की तालिका से परिचित यह जानते है कि इसका खाने वाले के शरीर पर क्या प्रभाव पड़ेगा। पहलवानों के लिए चिकनाई अधिक उपयोगी पड़ती है और मरीज के लिए सुपाच्य दाल, दलिया, शाकाहार, फलाहार। बालकों को एक स्तर का आहार दिया जाता है, तो प्रौढ़ों को दूसरी तरह का, वृद्धों को तीसरी तरह का। यह निर्धारण शरीरों की स्थिति एवं आवश्यकता का तालमेल बिठाते हुए किया जाता है।

पशुओं को कड़ी मेहनत की थकान उतारने के लिए एक तरह का चारा, दाना दिया जाता है, तो दूध उतरने के लिए दूसरी तरह का। बकरी और हाथी के लिए भी उनके अनुरूप खाद्य जुटाना पड़ता है। उसमें भिन्नता इस आधार पर रहती है कि उनकी पाचन प्रकृति कैसी है और पेट कितनी मात्रा में भरता है। यही बात मनुष्यों के सम्बन्ध में भी है, उनकी शारीरिक माँग और पाचन की स्थिति देखते हुए निर्णय करना पड़ता है कि कौन क्या खाये? कितना खाये?

यहाँ विचारणीय विषय यह है कि मनुष्य के सर्वाधिक महत्वपूर्ण तन्त्र मनःसंस्थान को प्रभावित करने में आहार की क्या विशेष भूमिका होती है। इस सम्बन्ध में कुछ गहराई में उतरने की आवश्यकता है। मोटी बुद्धि तो इतना ही सोच सकती है कि शरीर के अन्यान्य अवयवों की भाँति मस्तिष्क भी एक अंग है। जिस रस रक्त से समूचे शरीर को पोषण मिलता है, उसी स्तर का, उसी अनुपात का प्रभाव मस्तिष्क पर भी पड़ना चाहिए। इस जानकारी में कोई विवाद जैसी बात नहीं है, तो भी द्रष्टव्य यह है कि क्या चिन्तन क्षेत्र की कल्पना, बुद्धिमत्ता, दूरदर्शिता, नीतिमत्ता, मान्यता, आकांक्षा एवं प्रकृति जैसी विशेषताओं को भी आहार का स्तर कुछ प्रभावित करता है क्या? स्तर से तात्पर्य है मानवी गरिमा से सम्बन्धित उत्थान और पतन। निकृष्टता एवं उत्कृष्टता को उत्तेजन देने वाली प्रवृत्ति प्रवाह।

अनुभव बताता है कि आहार में न केवल रस रक्त का निर्माण करने की क्षमता है, वरन् वह चिन्तन के स्तर को भी प्रभावित करता है। यहाँ चर्चा बुद्धिमत्ता बढ़ाने वाली ब्राह्मी, शतावरि, वच, शंखपुष्पी,गोरखमुंडी जैसी औषधियों का प्रयोग, उपयोग करके मानसिक क्षमता को उत्तेजन देने वाले उपचार की नही हो रही है, वरन् यह विचारा जा रहा है कि आहार की क्या विशेषताएँ मनुष्य की भाव संवेदनाओं से सम्बन्धित उत्कृष्टता, निकृष्टता को उभारती है। इन विशेषताओं का पर्यवेक्षण करने के लिए खाद्य वस्तुओं के रासायनिक संगठन का उतना महत्व नहीं है, जितना कि उनके साथ जुड़े हुए अदृश्य वातावरण एवं प्रभाव का। यह प्रभाव उन व्यक्तियों से सम्बन्धित है, जिसने उसे कमाया, उगाया, पकाया, परोसा है।

व्यक्तियों की अपनी- अपनी विशेषताएँ है। उनके गुण, कर्म, स्वभाव एक दूसरे से भिन्न होते हैं। नर नारायण, नर देव, नर पशु, नर पिशाच के चार वर्गीकरण पुरातन है। उनमें और भी कितनी शाखाएँ हो सकती है। यह विभाजन वर्ग, लिंग, वैभव, शिक्षा, व्यवसाय, कौशल आदि से सम्बन्धित नहीवरन् आदर्शवादिता विषयक उत्कृष्टता और निकृष्टता के अनुपात के आधार पर है। कितने ही पशु प्रवृत्ति के पिछड़े, मूढ़मति, अदूरदर्शी एवं अभ्यस्त आदतों से बेतरह जकड़े होते हैं। इन्हें हेय या हीन ही कह सकते हैं। इन्हीं में कुछ उद्दण्ड, आततायी, निष्ठुर प्रकृति के होते है और सदा अनीति ही सोचते तथा कुकृत्य ही करते है। सज्जनोचित चिन्तन और व्यवहार तो उनसे यदा- कदा ही बन पड़ता है। इन नर वानरों और नर पामरों, नर पशुओं और नर पिशाचों से सर्वथा विपरीत एक दूसरा वर्ग वह है, जिनमें से एक को सज्जन दूसरे को उदात्त कह सकते है। सज्जन मानवी गरिमा का ध्यान रखते, मर्यादाएँ पालते और सभ्य सुसंस्कारियों जैसा जीवन जीते हैं। वस्तुतः इन्हें ही सच्चे अर्थों में मनुष्य कहा जा सकता है। इससे भी ऊँचा स्तर उनका है, जो अपने प्रति कठोर और दूसरों के प्रति उदार होते हैं। स्वयं ब्राह्मणोचित, अपरिग्रही रीति- नीति अपना कर क्षमताओं को बड़ी मात्रा में बचा लेते हैं और उन्हें पुण्य परमार्थ के लिए नियोजित करके असंख्यों का उद्धार करते रहते हैं। इन्हें सामान्य भाषा में सन्त और अध्यात्म भाव में ऋषि, देवता, तपस्वी, मनीषी आदि कहते है। इस वर्गीकरण से यह पता चलता है कि भाव संवेदनाओं एवं स्वभाव, आचरण के आधार पर किस प्रकार अनेकानेक विभाग विभाजन मनुष्यों के हो सकते है।

आहार की अपनी प्रकृति भी होती है। गीता में इसका सात्विक, राजसिक और तामसिक के रूप में विविध वर्गीकरण हुआ है। सात्विक से तात्पर्य अमृताशन स्तर के आहार से है। उबले हुए चावल- दाल, दलिया, खिचड़ी जैसे आहार को अमृताशन कहते है। शाक- भाजी भी साथ में ही उबाले जा सकते है। हलका सा नमक, अदरक, नीबू जैसे सम्मिश्रण भी स्वाद की दृष्टि से किये जा सकते है। ऐसा कुछ भी न मिलाया जाय, तो अस्वाद व्रत भी निभता है और सात्विकता का अनुपात और भी अधिक बढ़ जाता है। दूध- दलिया, दूध चावल भी अमृताशन वर्ग में आते हैं।

राजसी, तामसी स्तर के वे है, जिनमें तलनेभूनने का आश्रय लिया जाता है। चिकनाई, मिठाई तथा मसालों की भरमार की गई हो। इन दिनों दावतों में प्रायः ऐसी ही वस्तुएँ परोसी जाती है। कई- कई दिन पूर्व के बनाये बिस्कुट जैसे पदार्थ इसी श्रेणी में आते हैं। उत्तेजक, मादक पेय भी तमोगुणी कहे जा सकते हैं। होटलों में जहाँ एक ही रसोई घर में शाकाहारी, मांसाहारी वस्तुएँ पकती है, जूते पहने, बिना नहाये, मैले कुचैले हाथों से पकाते- परोसते है। एक के प्रयोग के बाद दूसरे के सामने भी वे ही बर्तन बिना अच्छी तरह धोये- माँजे रख दिये जाते हैं। ऐसी दशा में उनमें किया हुआ भोजन उन कुसंस्कारों से जुड़ जाता है, जो पहले वालों ने उस पात्र के साथ छोड़े थे।

रोटी, बेटी की पवित्रता का प्रचलन था। अब उसमें शिथिलता आने लगी है। जाति, बिरादरी और ऊँच- नीच की दृष्टि से तो इस प्रकार के प्रतिबन्धों की आवश्यकता नहीं है, किन्तु आहार में सात्विकता, सुसंस्कारिता बनी रहे, इसका ध्यान रखा जाना चाहिए, साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि वे कुकर्मी, कुसंस्कारी एवं दुष्ट स्वभाव के न हो। छूत के रोग एक दूसरे तक पहुँचते हैं, इसी प्रकार के सम्पर्क से कुसंस्कार भी आक्रमण करते हैं। खान- पान के सम्बन्ध में इन बातों का विशेष ध्यान उन लोगों को रखना चाहिए, जो अपनी चित्त वृत्तियों को उच्चस्तरीय रखना चाहते है और चिन्तन में अवांछनीयता को घुसने न देने के लिए विशेष रूप से इच्छुक है।

पिप्पलाद ऋषि ने मात्र पीपल के फल खाकर निर्वाह किया था। औदुम्वर ऋषि गूलर मात्र लेकर जीवनचर्या चलाते थे। कणाद जंगली घासों से उपलब्ध होने वाले साँवामकरा, कोदों, साठी जैसे अनायास ही उत्पन्न होने वाले बीज कणों को समेट कर पेट भरते थे। कन्दमूल फल पर ऋषियों की उदर पूर्ति होती थी। यह सब अब वन प्रदेशों में अनायास उत्पन्न नहीं होता, प्रयत्न पूर्वक स्वयं उगाना पड़ता है। अच्छा तो यही है कि अपने एक छोटे खेत में परिवार के लायक अन्न और शाक स्वयं उगायें। इससे परिवार भर को श्रमरत रहने का अवसर मिलेगा। आलस्य से बचने और सृजन चिन्तन का अभ्यास बढ़ेगा। जिनके पास खेत नहीं है, वे भी आँगनवाड़ी, छत बाड़ी, छप्परवाड़ी की व्यवस्था बना कर मौसम के अनुरूप शाकभाजी उगाने का प्रयत्न करें। छोटे परिवार की शाक व्यवस्था इतने से भी चल सकती है। बड़ा परिवार हो तो भी चटनी के लायक ध्वनियाँ, पोदीना,अदरख, पालक, सलाद जैसी वस्तुएँ आसानी से बोई उगाई जा सकती हैं।

इन दिनों रासायनिक खादें और कीट नाशक दवाओं की भरमार है। कोल्ड स्टोर में महीनों तक रखे रहने पर भी आहार की ताजगी चली जाती है। इन बातों को ध्यान में रखते हुए ऐसा प्रबन्ध करें कि आहार उत्पादन की दिशा में स्वावलम्बी होने के लिए प्रयत्नशील रहा जाय। महत्व समझने, ध्यान जाने और प्रयत्न करने पर मनुष्य अनेक गुत्थियों के समाधान ढूँढ़ निकालता है। तब कोई कारण नहीं है कि परमप्रिय काया आरोग्य जैसी सम्पदा एवं स्वजन स्नेहियों से भरे परिवार की महती आवश्यकता को पूरा करने के लिए, खाद्य पदार्थों की शुद्धता के लिए कुछ न कुछ तो किया ही जा सकता है।

आरोग्य से न केवल आहार का, वरन् श्रम का भी घनिष्ठ सम्बन्ध है। शारीरिक श्रम की उपेक्षा करने पर कलपुर्जे शिथिल ही नहीं पड़ जाते, वरन् जंग खाये औजार की तरह बेकार भी हो जाते हैं, श्रम को आहार के साथ जोड़ कर एक समग्र स्वास्थ्य शृंखला को पुनर्जीवित किया जा सकता है। आटा, दलिया हाथ की चक्की से पीसा जाय, धान कूटे जाय, दूध दुहने और मथने का अभ्यास रखा जाय, कुएँ से पानी खींचने और कपड़े धोने जैसे घरेलू कामकाजों को अपनाये रहने पर महिलाओं को उपयोगी श्रम करने का अवसर मिलता रह सकता है। बच्चे तक फूल- पौधों से, बछड़ों- बैलों के साथ खेलते रह सकते हैं। पक्षियों के साथ आँख मिचौनी चलती रह सकती है। कैसे सुखद, स्वाभाविक और सन्तोष, उल्लास से भरा- पूरा हो सकता है यह जीवनक्रम। इस पुरातन परम्परा को यदि नये उत्साह और नई सूझबूझ के साथ अपनाया जा सके, तो समझना चाहिए कि स्वस्थता और प्रसन्नता के दिन फिर वापस लौट आवे।

इस सन्दर्भ में सीखना कुछ नहीं है। जो भुला दिया गया है, उसे फिर से स्मरण करना है और जो प्रगतिशीलता के अहंकार में उद्धत स्वेच्छाचार अपना लिया गया है, उसे भुला देना है। यह भूलने और स्मरण करने की विधा ही उस स्वर्णिम युग को वापस ला सकती है, जिसे हम सब उच्छ्वास भरते हुए सतयुग के नाम से स्मरण करते रहते है।
आरोग्य मात्र शरीर तक ही सीमित नही है। उसका प्रभाव मानसिक स्वस्थता तक चला जाता है ।। स्वस्थ शरीर और स्वच्छ मन दोनों का अन्योऽन्याश्रित सम्बन्ध है। एक गिरेगा तो दूसरा भी स्थित न रह सकेगा। इसलिए जब भी सोचना हो, दोनों की सम्मिश्रित स्वस्थता की बात सोचनी चाहिए। इसके लिए आहार और विहार दोनों पर समान रूप से ध्यान देना चाहिए और ऐसा जीवनक्रम अपनाना चाहिए, जिससे इनमें से एक भी टूटने, डगमगाने न पाये। इस सन्दर्भ सर्वप्रथम आहार की उपयुक्तता पर ध्यान देना होगा और यह देखना होगा कि वह पौष्टिक ही नहीं सात्विक स्तर का भी है क्या?

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