बोएं कांटे और आशा फूलों की -Forks and flowers planted hope
जिंदगी में दिन कभी एक जैसे नहीं रहते। कभी दुख है, कभी सुख, कभी हर्ष है, कभी विषाद। संसार में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं मिलेगा, जिसने कभी समस्याओं का सामना न किया हो और दुख न भोगे हों। कोई ऐसा नहीं मिलेगा, जिसे सारे सुख होने के बाद भी कोई दुख न हो, कोई चिंता न हो। सफल माने जाने वाले व्यक्ति के साथ भी यह नियति अवश्यंभावी रूप से जुड़ी हुई है। दुखों और चिंताओं से मुक्ति संभव नहीं है, किंतु यह मनुष्य पर निर्भर करता है कि वह अपनी समस्याओं को कैसे ग्रहण करता है। ऐसे लोग हैं, जो छोटी सी भी समस्या आए तो परेशान हो जाते हैं। ऐसे लोग भी हैं जो तमाम विपत्तियों के बाद भी मुस्कराकर जीवन जीना जानते हैं और समस्याओं से घबराते नहीं हैं। जैसे सुख एक अहसास है, वैसे ही दुख भी एक अहसास है। इस अहसास को अपनी दृष्टि से बदला जा सकता है। मुख्य प्रश्न यह है कि कोई अपने जीवन और समाज, संसार से कैसी और कितनी अपेक्षाएं रख रहा है। ऐसे लोगों की भरमार है, जिनका अपने जीवन को और समाज को संवारने में अति अल्प योगदान है, किंतु वे प्रतिदान में चाहते बहुत कुछ हैं। थोड़ा सा दे रहे हैं और मांग बहुत अधिक रहे हैं। यह कहां का न्याय है। स्वयं वे किसी को चुल्लूभर पानी भी देने को तैयार नहीं, किंतु निंदा करने बैठेंगे तो भगीरथ की भी निंदा करेंगे, जो स्वर्ग से गंगा लेकर आए थे। दुखों का आरंभ यहीं से होता है। खेत में जो बोएंगे, फसल उसी की तो काटेंगे। यह तो नहीं हो सकता कि बोएं कांटे और आशा फूलों की करने लगें। खेत में यदि फसल चाहिए तो उसे तैयार तो करना पड़ेगा और उसमें बीज डालने पड़ेंगे। खेत को पानी से सींचना भी पड़ेगा और जानवरों, पक्षियों से बचाना भी पड़ेगा। इसके बाद धैर्य से फसल के उगने और पकने की प्रतीक्षा भी करनी पड़ेगी। प्रकृति का यह अटल सिद्धांत जीवन में भी प्रभावी है। सुखी वही है, जिसने अपनी कर्मभूमि को उपजाऊ खेत की भांति तैयार कर लिया है, उसमें कर्मो के बीज बो रहा है, कृषक जैसी बुद्धिमत्ता और धैर्य से उन्हें आगे बढ़ा रहा है। कुछ पाने की लालसा पालने से पहले हमें देना सीखना होगा। देने और मांगने में सापेक्षता होनी चाहिए। यह भी समझना होगा कि जीवन लेन-देन का ही नाम नहीं है। मानव इतिहास में ऐसे महापुरुषों की कमी नहीं है, जिन्होंने देने ही देने में सारा जीवन लगा डाला और कभी कुछ पाने की कामना नहीं की।
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