असली आनंद को सहज समाधि कहते हैं।-The real joy is spontaneous samadhi.

 आनंद की स्थिति में मानसिक शांति को विशेष महत्व दिया जाता है। आनंद के बारे में बताया नहीं जा सकता, बल्कि इसकी अनुभूति की जा सकती है। इस संदर्भ में यह जानना महत्वपूर्ण है कि आनंद अहंकार-शून्य अवस्था है। चेतना के दो तल हैं। पहला तल व्यक्तित्व या अहंकार का है। दूसरा तल आत्मा का तल है। जहां तक व्यक्तित्व या अहंकार है, मैं-पन है, अपने होने का भाव है; वहां आनंद नहीं है। दूसरी बात, आनंद हमारा स्वभाव है। व्यक्तित्व नहीं, निजता हमारी प्रकृति है। व्यक्तित्व है परिधि, मगर निजता केंद्रीय तत्व है। आनंद अंतर्यात्र है। जब भी मिलेगा, भीतर से ही मिलेगा। चौथी बात-आनंद उन्मनी दशा है। जहां मन नहीं है, विचार नहीं है, वहीं आनंद है। संत कबीर इसी आनंद को सहज समाधि कहते हैं। विराट के साथ एक हो जाना आनंद है। जब तक हम अकेले हैं, जब तक हम द्वैत में हैं, तब तक आनंद नहीं है। जब हम विराट के साथ एकाकार होते हैं, जहां हमारी अलग सत्ता समाप्त हो जाती है-वहां आनंद है। आनंद के अनुभव के लिए अपने भीतर लौटना होगा। अंतस की यात्र शुरू होती है साक्षी से, ध्यान से। साक्षीभाव का मतलब है किसी वस्तु या विषय को साक्षी बनकर देखना। आनंद प्राप्ति का दूसरा कदम है-स्वीकार भाव। हर स्थिति को स्वीकार करना। तीसरा कदम है, सद्गुरु का साथ चाहिए। साक्षी और स्वीकार भाव तो हम स्वयं भी साध सकते हैं, लेकिन आगे की अंतर्यात्र अगर अकेले की, तो भटकने की संभावना ज्यादा रहेगी।1 सद्गुरु क्या करता है? सद्गुरु आपको परम तत्व की दिशा की ओर उन्मुख करता है। सद्गुरु के मार्गदर्शन से ही आनंद की असली यात्र शुरू होती है। फिर बारी आती है-प्रभु के सुमिरन की। सुमिरन ही एक दिन समाधि तक पहुंचा देता है। समाधि का अर्थ है-प्रभु से मिलन के आनंद का गहरा जाना। समाधि अहंकार, मन, विचार-इन सभी को मिटा देती है और रह जाती है केवल शुद्ध चेतना। विराट के साथ जब हम एक होते हैं, उस समाधि का नाम ही आनंद है। समाधि में गए बगैर कोई आनंद का अहसास नहीं कर सकता। वह आनंद अस्थायी नहीं है। सुख की मनोदशा में भौतिक स्थितियों को भी विशेष महत्व दिया जाता है, लेकिन आनंद मानसिक शांति की सर्वोच्च मनोदशा है।13 ओशो सिद्धार्थ
असली आनंद1आनंद की स्थिति में मानसिक शांति को विशेष महत्व दिया जाता है। आनंद के बारे में बताया नहीं जा सकता, बल्कि इसकी अनुभूति की जा सकती है। इस संदर्भ में यह जानना महत्वपूर्ण है कि आनंद अहंकार-शून्य अवस्था है। चेतना के दो तल हैं। पहला तल व्यक्तित्व या अहंकार का है। दूसरा तल आत्मा का तल है। जहां तक व्यक्तित्व या अहंकार है, मैं-पन है, अपने होने का भाव है; वहां आनंद नहीं है। दूसरी बात, आनंद हमारा स्वभाव है। व्यक्तित्व नहीं, निजता हमारी प्रकृति है। व्यक्तित्व है परिधि, मगर निजता केंद्रीय तत्व है। आनंद अंतर्यात्र है। जब भी मिलेगा, भीतर से ही मिलेगा। चौथी बात-आनंद उन्मनी दशा है। जहां मन नहीं है, विचार नहीं है, वहीं आनंद है। संत कबीर इसी आनंद को सहज समाधि कहते हैं। विराट के साथ एक हो जाना आनंद है। जब तक हम अकेले हैं, जब तक हम द्वैत में हैं, तब तक आनंद नहीं है। जब हम विराट के साथ एकाकार होते हैं, जहां हमारी अलग सत्ता समाप्त हो जाती है-वहां आनंद है। आनंद के अनुभव के लिए अपने भीतर लौटना होगा। अंतस की यात्र शुरू होती है साक्षी से, ध्यान से। साक्षीभाव का मतलब है किसी वस्तु या विषय को साक्षी बनकर देखना। आनंद प्राप्ति का दूसरा कदम है-स्वीकार भाव। हर स्थिति को स्वीकार करना। तीसरा कदम है, सद्गुरु का साथ चाहिए। साक्षी और स्वीकार भाव तो हम स्वयं भी साध सकते हैं, लेकिन आगे की अंतर्यात्र अगर अकेले की, तो भटकने की संभावना ज्यादा रहेगी।1 सद्गुरु क्या करता है? सद्गुरु आपको परम तत्व की दिशा की ओर उन्मुख करता है। सद्गुरु के मार्गदर्शन से ही आनंद की असली यात्र शुरू होती है। फिर बारी आती है-प्रभु के सुमिरन की। सुमिरन ही एक दिन समाधि तक पहुंचा देता है। समाधि का अर्थ है-प्रभु से मिलन के आनंद का गहरा जाना। समाधि अहंकार, मन, विचार-इन सभी को मिटा देती है और रह जाती है केवल शुद्ध चेतना। विराट के साथ जब हम एक होते हैं, उस समाधि का नाम ही आनंद है। समाधि में गए बगैर कोई आनंद का अहसास नहीं कर सकता। वह आनंद अस्थायी नहीं है। सुख की मनोदशा में भौतिक स्थितियों को भी विशेष महत्व दिया जाता है, लेकिन आनंद मानसिक शांति की सर्वोच्च मनोदशा

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