शांति की खोज-Search for Peace

 संसार में आज हर तरफ भय, दुख, अशांति दिखाई पड़ रही है। इस सब से ग्रस्त मानव जीवन के असली रस से वंचित होकर जीवन को ही कोस रहा है। प्रश्न यह नहीं है कि मनुष्य इतना अशांत, दुखी और चिंताग्रस्त क्यों हो गया? बल्कि प्रश्न है कि यह जो स्वनिर्मित चिंता है उसके निराकरण के लिए कोई भी व्यक्ति प्रयास क्यों नहीं करता? दीर्घायु होना कोई देव कृपा नहीं है, यह सामान्य विज्ञान है, जिसकी थोड़ी समझ से मनुष्य कम से कम शतायु तो हो ही सकता है। प्रयास किया जाए तो उससे अधिक भी जिया जा सकता है। लेकिन किसी महान वस्तु की प्राप्ति के लिए जिस प्रकार सघन प्रयास किया जाता है उसी प्रकार जीवन को स्वस्थ और दीर्घायु बनाने के लिए भी प्रयास किया जा सकता है। मनुष्य कितनी निष्ठा से प्रयास करता है, उसी पर यह निर्भर करता है कि उसने जीवन में क्या-क्या प्राप्त किया। जीवन जीने की विधि में थोड़ी-सी दृष्टि बदलने की जरूरत है। आज बड़ी तेजी से समय बदल रहा है। समय के साथ मनुष्य का परिवेश और जीवन जीने की विधि में परिवर्तन हो रहा है। यही परिवर्तन है। आज के युग को भौतिकवादी युग कहा जाता है। भौतिकता का अर्थ है अपने साधनों का विस्तार और अधिक से अधिक उपलब्धि। अधिक से अधिक वस्तुओं का संग्रह करना भौतिकवादी दृष्टिकोण है और बड़े आश्चर्य की बात है कि मनुष्य भौतिक वस्तुओं का संग्रह कर सुखी होना चाहता है। भौतिक वस्तुओं का संबंध बाहर के संसार से है और सुख अंदर के संसार से उपजता है, यही दृष्टिकोण है। बाहर की वस्तुओं से धन-वैभव बढ़ता है और धन मनुष्य के अहंकार को तृप्त करता है। 1 अपार धन संपदा भी मनुष्य के आंतरिक गुणों को विकसित नहीं कर पाती। सुख अंतर्मन की अनुभूति है। उसे बाहर की वस्तुओं में ढूंढ़ना उचित नहीं है। इसलिए पहले यह निर्णय करें कि आपको बाहर का सुख चाहिए कि भीतर का। बाहर का सुख चाहिए तो उस धन-वैभव के संग्रह से क्षणिक सुख प्राप्त कर सकते हैं। आज तक जितने भी विचारक हुए हैं, उनका मानना है कि बाहर की वस्तुओं से अंतर्मन को सुखी नहीं किया जा सकता। जिन लोगों ने जीवन भर अथक परिश्रम कर काफी धन-वैभव प्राप्त किया, इससे उनके अहंकार की तृप्ति तो हुई, लेकिन वे सुखी नहीं बन सके। इसका अर्थ है कि संसार की उपलब्धि में सुख नहीं है।

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