सेक्युलर होने का स्वांग


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सेक्युलर होने का स्वांग
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अपने को सेक्युलर बताने अर्थात बौद्धिक ईमानदारी का ठप्पा लगवाने के लिए ज्यादा मेहनत करने की जरूरत नहीं होती। अगर आपके नाम के अंत में सिंह, शुक्ला, यादव लगा है या पहले विकास, प्रकाश, चंद्र या सुच्चा लगा है और आप संघ, हिंदुत्व, भारतीय जनता पार्टी , बहुसंख्यक अवधारणाओं या फिर हिंदू देवी-देवताओं के खिलाफ बोल सकते हैं तो आप सेक्युलर हैं। यह मान लिया जाएगा कि आप बौद्धिक रूप से ईमानदार हैं और चूंकि बौद्धिक रूप से ईमानदार हैं तो आर्थिक, सामाजिक रूप से गलत हो ही नहीं सकते। अगर आप इससे भी सहज रास्ते से सेक्युलर होना चाहते हैं तो किसी आजम, किसी ओवैसी या किसी फायरब्रांड मौलाना की बात को सही ठहराइए। आपकी सेक्युलरिज्म चमक जाएगी और अगर सेक्युलरिज्म चमक गई तो बाकी सारी योग्यताएं आपके खाते में बोनस के रूप में होंगी। भारतीय चिंतन परंपरा में सीधे सोचने, बेबाकी से तथ्यों को देखने या निरपेक्ष रूप से विश्लेषण करने की पद्धति शायद विलुप्त-सी हो गई है। लगता है कि अब बुद्धिजीवी या तो ताउम्र इस धारा का होता है या उस धारा का। जो दादरी घटना में अखलाक की मौत पर देश के तानेबाने के टूटने की आशंका पर आंसू बहाता है और बहुसंख्यक हिंदुओं के खिलाफ आग उगलता है क्या मजाल कि वही व्यक्ति मालदा के कालियाचक कस्बे में अल्पसंख्यको (उस क्षेत्र में बहुसंख्यक) द्वारा थाने पर हमला करने, एक किशोर तन्मय को गोली मारने और हिंदू बालिका को पीटने की निंदा उसी क्रोध-मिश्रित तर्क के साथ करे। 1 मैं पत्रकारीय सीमा लांघ रहा हूं। आज की पत्रकारिता में हिंदू आक्रांता-अपराधी का नाम तो लिया जा सकता है, लेकिन गलती से भी मुसलमान शब्द कहना या मुस्लिम हमलावरों के नाम लेना गलत माना जाता है। अखलाकको मारने वाले हिंदू ठाकुर थे यह कह सकते हैं, लेकिन कालियाचक में किसने वाहन जलाए, किसने गोली चलाई यह नहीं। हिंदू लड़की से अगर किसी मुसलमान लड़के ने बदतमीजी की तो लड़की का नाम तो ले सकते हैं, पर गलती से मुसलमान आरोपी का नहीं। इससे हमारी सेक्युलर सोच बिगड़ती है। इसीलिए हम उसे एक अन्य समुदाय या संप्रदाय विशेष का लिखते हैं। अखलाकको जिन लोगों ने मारा वे भी लंपट अपराधी थे। समाज के दुश्मन थे, लेकिन क्या इस सेक्युलर ब्रिगेड को यह समझ में नहीं आता कि कालियाचक में हजारों मुसलमानों की जिस भीड़ में से कुछ लोग निकल कर थाने पर हमला कर रहे थे वे भी इबादत नहीं कर रहे थे। देश भर के आम मुसलमानों से पूछिए तो वह कालियाचक हिंसा की भी निंदा करता है और दादरी की भी। आम हिंदू भी यही करता है। उसे न तो कालियाचक का उपद्रव सुहाता है न ही अखलाक का मारा जाना। फिर यह बात सेक्युलर ब्रिगेड को क्यों नहीं समझ में आती? जिस कुरान में ए खुदा, मुङो सीधा रास्ता दिखा कह कर ईश्वर का आह्वान किया गया हो वह कालियाचक में जैसी घटना घटी उसकी इजाजत तो कतई नहीं देता। 1इसमें कोई दो राय नहीं कि अब मीडिया के एक बड़े हिस्से में भी ऐसे तत्व हैं जो सत्य अपने हिसाब से गढ़ते हैं। यही वजह है कि कालियाचक को मीडिया के एक हिस्से में वह प्राथमिकता नहीं मिलती जो दादरी की घटना को दी गई। हिंदू महासभा का कमलेश तिवारी अगर देश की व्यवस्था के लिए खतरा है तो क्या इदारा-ए-शरिया, जिसके आह्वान पर मुसलमान कलियाचक में इकट्ठा हुए थे, को इंसानियत का अलमबरदार कहा जा सकता है? कमलेश ने पैंगबर साहब के बारे में बेहूदी बातें कही तो क्या इस इदारे के लोगों को थाना जलाने का लाइसेंस मिल गया? क्यों नहीं भारत का अधिकांश मीडिया जो दिन-रात हांफ-हांफ कर अखलाक के मरने पर भारत सरकार का मर्सिया पढ़ता रहा (जबकि मोदी सरकार का उससे कुछ लेना-देना नहीं था) और सब कुछ लुट रहा है के भाव में देश के बहुसंख्यक वर्ग की लानत-मलानत करता रहा, कालियाचक में भी उसी शिद्दत से रिपोर्टिग कर पाया? दादरी की घटना पर भारत सरकार के एक मंत्री ने कहा था कि अखलाक की हत्या एक हादसा- दुर्घटना थी। मंत्री का यह बयान गलत था। मारने वाले अखलाक के यहां चोरी करने या डाका डालने नहीं गए थे। लिहाजा देश भर के सेक्युलर मीडिया ने और सेक्युलर बुद्धिजीवियों ने उस मंत्री को जीभर के कोसा। अच्छा लगा, लेकिन जब पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी कालियाचक की घटना पर भी ठीक ऐसा ही बयान दिया तो अचानक सेक्युलर ब्रिगेड को सांप क्यों सूंघ गया? 1जिन्होंने अखलाककी हत्या में देश का संवैधानिक सेक्युलर ताना-बाना टूटते देखा और प्रतिक्रिया में अपने अवार्ड वापस किए क्या उनमें से एक भी ऐसा नहीं है जो फिर कोई अवार्ड वापस करे? बंगाल तो बुद्धिजीवियों का गढ़ रहा है। कहां गए वे सारे दर्जनों बुद्धिजीवी? कहां गए वह आमिर खान जिनकी पत्नी को इतना डर पैदा हो गया था कि वह आमिर को देश छोड़ने की सलाह देने लगी थीं? कैसे हो जाती है एक घटना असहिष्णुता की पराकाष्ठा और दूसरी मात्र ऐसी आपराधिक घटना जिसकी अनदेखी करने में ही भलाई है? क्या कालियाचक के अल्पसंख्यक हिंदुओं में भी वही दहशत नहीं होगी जो आमिर की पत्नी को दादरी की घटना के बाद हुई थी? क्या उन हिंदुओं की सुरक्षा के लिए बुद्धिजीवियों का भाव अलग होना चाहिए? आखिर कालियाचक में जिस किशोर तन्मय को गोली लगी वह उसके शरीर के ऊपरी भाग में भी लग सकती थी और वह भी अखलाककी गति को प्राप्त हो सकता था? क्या किसी ने उसके उपचार में मदद की? चूंकि देश में स्वतंत्र, पूर्वाग्रह-रहित विचारकों की बेहद टोटा है और ज्यादातर खेमे में बंटे हुए हैं इसलिए आज देश में संवाद को सही दिशा नहीं मिल पा रही है।1(लेखक ब्राडकास्ॅट एडिटर्स एसोसिएशन के महासचिव और स्तंभकार हैं)11ी2स्रल्ल2ीAं¬1ंल्ल.ङ्घे1

दोहरे मानदंड16यह ठीक है कि यदि किसी गंभीर घटना को कोई केंद्रीय मंत्री मामूली बताएं तो उनकी निंदा हो पर ऐसा ही ममता बनर्जी कहें तो सन्नाटा क्यों? 16

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सेक्युलर होने का स्वांग

अपने को सेक्युलर बताने अर्थात बौद्धिक ईमानदारी का ठप्पा लगवाने के लिए ज्यादा मेहनत करने की जरूरत नहीं होती। अगर आपके नाम के अंत में सिंह, शुक्ला, यादव लगा है या पहले विकास, प्रकाश, चंद्र या सुच्चा लगा है और आप संघ, हिंदुत्व, भारतीय जनता पार्टी , बहुसंख्यक अवधारणाओं या फिर हिंदू देवी-देवताओं के खिलाफ बोल सकते हैं तो आप सेक्युलर हैं। यह मान लिया जाएगा कि आप बौद्धिक रूप से ईमानदार हैं और चूंकि बौद्धिक रूप से ईमानदार हैं तो आर्थिक, सामाजिक रूप से गलत हो ही नहीं सकते। अगर आप इससे भी सहज रास्ते से सेक्युलर होना चाहते हैं तो किसी आजम, किसी ओवैसी या किसी फायरब्रांड मौलाना की बात को सही ठहराइए। आपकी सेक्युलरिज्म चमक जाएगी और अगर सेक्युलरिज्म चमक गई तो बाकी सारी योग्यताएं आपके खाते में बोनस के रूप में होंगी। भारतीय चिंतन परंपरा में सीधे सोचने, बेबाकी से तथ्यों को देखने या निरपेक्ष रूप से विश्लेषण करने की पद्धति शायद विलुप्त-सी हो गई है। लगता है कि अब बुद्धिजीवी या तो ताउम्र इस धारा का होता है या उस धारा का। जो दादरी घटना में अखलाक की मौत पर देश के तानेबाने के टूटने की आशंका पर आंसू बहाता है और बहुसंख्यक हिंदुओं के खिलाफ आग उगलता है क्या मजाल कि वही व्यक्ति मालदा के कालियाचक कस्बे में अल्पसंख्यको (उस क्षेत्र में बहुसंख्यक) द्वारा थाने पर हमला करने, एक किशोर तन्मय को गोली मारने और हिंदू बालिका को पीटने की निंदा उसी क्रोध-मिश्रित तर्क के साथ करे। 1 मैं पत्रकारीय सीमा लांघ रहा हूं। आज की पत्रकारिता में हिंदू आक्रांता-अपराधी का नाम तो लिया जा सकता है, लेकिन गलती से भी मुसलमान शब्द कहना या मुस्लिम हमलावरों के नाम लेना गलत माना जाता है। अखलाकको मारने वाले हिंदू ठाकुर थे यह कह सकते हैं, लेकिन कालियाचक में किसने वाहन जलाए, किसने गोली चलाई यह नहीं। हिंदू लड़की से अगर किसी मुसलमान लड़के ने बदतमीजी की तो लड़की का नाम तो ले सकते हैं, पर गलती से मुसलमान आरोपी का नहीं। इससे हमारी सेक्युलर सोच बिगड़ती है। इसीलिए हम उसे एक अन्य समुदाय या संप्रदाय विशेष का लिखते हैं। अखलाकको जिन लोगों ने मारा वे भी लंपट अपराधी थे। समाज के दुश्मन थे, लेकिन क्या इस सेक्युलर ब्रिगेड को यह समझ में नहीं आता कि कालियाचक में हजारों मुसलमानों की जिस भीड़ में से कुछ लोग निकल कर थाने पर हमला कर रहे थे वे भी इबादत नहीं कर रहे थे। देश भर के आम मुसलमानों से पूछिए तो वह कालियाचक हिंसा की भी निंदा करता है और दादरी की भी। आम हिंदू भी यही करता है। उसे न तो कालियाचक का उपद्रव सुहाता है न ही अखलाक का मारा जाना। फिर यह बात सेक्युलर ब्रिगेड को क्यों नहीं समझ में आती? जिस कुरान में ए खुदा, मुङो सीधा रास्ता दिखा कह कर ईश्वर का आह्वान किया गया हो वह कालियाचक में जैसी घटना घटी उसकी इजाजत तो कतई नहीं देता। 1इसमें कोई दो राय नहीं कि अब मीडिया के एक बड़े हिस्से में भी ऐसे तत्व हैं जो सत्य अपने हिसाब से गढ़ते हैं। यही वजह है कि कालियाचक को मीडिया के एक हिस्से में वह प्राथमिकता नहीं मिलती जो दादरी की घटना को दी गई। हिंदू महासभा का कमलेश तिवारी अगर देश की व्यवस्था के लिए खतरा है तो क्या इदारा-ए-शरिया, जिसके आह्वान पर मुसलमान कलियाचक में इकट्ठा हुए थे, को इंसानियत का अलमबरदार कहा जा सकता है? कमलेश ने पैंगबर साहब के बारे में बेहूदी बातें कही तो क्या इस इदारे के लोगों को थाना जलाने का लाइसेंस मिल गया? क्यों नहीं भारत का अधिकांश मीडिया जो दिन-रात हांफ-हांफ कर अखलाक के मरने पर भारत सरकार का मर्सिया पढ़ता रहा (जबकि मोदी सरकार का उससे कुछ लेना-देना नहीं था) और सब कुछ लुट रहा है के भाव में देश के बहुसंख्यक वर्ग की लानत-मलानत करता रहा, कालियाचक में भी उसी शिद्दत से रिपोर्टिग कर पाया? दादरी की घटना पर भारत सरकार के एक मंत्री ने कहा था कि अखलाक की हत्या एक हादसा- दुर्घटना थी। मंत्री का यह बयान गलत था। मारने वाले अखलाक के यहां चोरी करने या डाका डालने नहीं गए थे। लिहाजा देश भर के सेक्युलर मीडिया ने और सेक्युलर बुद्धिजीवियों ने उस मंत्री को जीभर के कोसा। अच्छा लगा, लेकिन जब पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी कालियाचक की घटना पर भी ठीक ऐसा ही बयान दिया तो अचानक सेक्युलर ब्रिगेड को सांप क्यों सूंघ गया? 1जिन्होंने अखलाककी हत्या में देश का संवैधानिक सेक्युलर ताना-बाना टूटते देखा और प्रतिक्रिया में अपने अवार्ड वापस किए क्या उनमें से एक भी ऐसा नहीं है जो फिर कोई अवार्ड वापस करे? बंगाल तो बुद्धिजीवियों का गढ़ रहा है। कहां गए वे सारे दर्जनों बुद्धिजीवी? कहां गए वह आमिर खान जिनकी पत्नी को इतना डर पैदा हो गया था कि वह आमिर को देश छोड़ने की सलाह देने लगी थीं? कैसे हो जाती है एक घटना असहिष्णुता की पराकाष्ठा और दूसरी मात्र ऐसी आपराधिक घटना जिसकी अनदेखी करने में ही भलाई है? क्या कालियाचक के अल्पसंख्यक हिंदुओं में भी वही दहशत नहीं होगी जो आमिर की पत्नी को दादरी की घटना के बाद हुई थी? क्या उन हिंदुओं की सुरक्षा के लिए बुद्धिजीवियों का भाव अलग होना चाहिए? आखिर कालियाचक में जिस किशोर तन्मय को गोली लगी वह उसके शरीर के ऊपरी भाग में भी लग सकती थी और वह भी अखलाककी गति को प्राप्त हो सकता था? क्या किसी ने उसके उपचार में मदद की? चूंकि देश में स्वतंत्र, पूर्वाग्रह-रहित विचारकों की बेहद टोटा है और ज्यादातर खेमे में बंटे हुए हैं इसलिए आज देश में संवाद को सही दिशा नहीं मिल पा रही है।1(लेखक ब्राडकास्ॅट एडिटर्स एसोसिएशन के महासचिव और स्तंभकार हैं)

दोहरे मानदंड यह ठीक है कि यदि किसी गंभीर घटना को कोई केंद्रीय मंत्री मामूली बताएं तो उनकी निंदा हो पर ऐसा ही ममता बनर्जी कहें तो सन्नाटा क्यों? 

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