Art of living -जीने की कला - Art of living

आप तभी अजेय हो सकते हैं जब प्रतियोगिता के ऐसे क्षेत्र में प्रवेश न करें जहाँ विजय आपके हाथ में नहीं है।
यह क्षेत्र स्‍वतंत्रता का है।

यह दावा कभी न करें कि आपने किताबें पढ़ी हैं। यह दिखाएँ कि अध्‍ययन से आपके सोचने का तरीका बेहतर हुआ है, कि आप ज्‍यादा विचारशील और विवेकी व्‍यक्ति हुए हैं। किताबों से मस्तिष्‍क का प्रशिक्षण होता है। उनसे बहुत मदद मिलती है। लेकिन कोई ऐसा सोचता है कि उसने किताबें पढ़कर उनकी सामग्री अपने दिमाग में भर ली है और यही उसकी प्रगति है, तो यह उसकी भूल है।

यह हमारे साथ बार-बार होता है : हम यह नहीं देख पाते कि क्‍या महत्‍वपूर्ण है और क्‍या महत्‍वपूर्ण नहीं है।
हम उन चीजों के लिए तरसते हैं जिन पर हमारा नियंत्रण नहीं है; और जिन पर हमारा नियंत्रण है, उनसे हमें संतोष नहीं होता।
हमें बीच-बीच में ठहर कर अपनी स्थिति का जायजा लेना चाहिए। हमें विचार करना चाहिए कि कौन-सी चीजें मूल्‍यवान हैं और कौन-सी चीजें मूल्‍यवान नहीं हैं; कौन-से जोखिम उठाने लायक हैं और कौन-से जोखिम उठाने लायक नहीं हैं।
जब हम चीजों को साफ-साफ देखने की कोशिश करेंगे और गलत के बजाय सही का चुनाव करेंगे, तो जीवन के बहुत-से अस्‍पष्‍ट या दुखद पहलू अपने आप सहनीय हो जाएँगे।

प्रकृति की इच्‍छा को जानने की कोशिश करें। उसका अध्‍ययन करें, उस पर ध्‍यान दें और उसे अपनी इच्‍छा बनाएँ।
प्रकृति की इच्‍छा रोजमर्रा के अनुभवों में प्रकट होती है और ये अनुभव सभी को होते हैं। उदाहरण के लिए, अगर पड़ोसी के लड़के से कोई बरतन या ऐसी ही कोई चीज टूट गई, तो हम कह देते हैं, 'यह हो जाता है।' जब आपका बरतन टूट जाता है, तब भी आपकी प्रतिक्रिया वही होनी चाहिए जो किसी और व्‍यक्ति का बरतन टूटने पर होती है।
इस समझ को उच्‍चतर मामलों तक ले जाएँ। क्‍या किसी अन्‍य व्‍यक्ति का बच्‍चा या पति-पत्‍नी या कोई अन्‍य प्रियजन मर गया है? ऐसे मौकों पर कोई ऐसा नहीं होगा जो यह न कहता हो, 'यह तो जीवन का चक्र है। मरना तो सभी को है। कुछ चीजें अपरिहार्य होती हैं।' लेकिन जब हमारी अपनी संतान या हमारे किसी अत्‍यंत प्रिय व्‍यक्ति की मृत्‍यु हो जाती है, तो हमसे विलाप किए बिना नहीं रहा जाता, 'उफ्! यह वेदना सही नहीं जाती!'
जो सच्‍चाई हम दूसरों को समझाने की कोशिश करते हैं, वह हम अपने आपको क्‍यों नहीं समझा सकते?

परिस्थितियों का जन्‍म हमारी उम्‍मीदों को पूरा करने के लिए नहीं होता। घटनाओं का अपना तर्क होता है। लोग जैसा होते हैं, वे वैसा ही व्‍यवहार करते हैं।
अपनी आँखें खोलें : जो दिखाई देता है, उसकी तह में जाएँ। इसी से आप मिथ्‍या आसक्तियों और परिहार्य वेदनाओं से अपने को बचा सकते हैं। उन चीजों के बारे में सोचें जिनसे आपको आह्लाद होता है : वे औजार जिन पर आपको भरोसा है, वे व्‍यक्ति जो आपको भाते हैं। लेकिन याद रखें, इन सभी का अपना-अपना चरित्र है, जो इस बात से एकदम अलग मामला है कि उनके बारे में हम क्‍या सोचते हैं।
अभ्‍यास के रूप में, उन छोटी से छोटी चीजों पर विचार करें जिनसे आपका लगाव है। उदाहरण के लिए, मान लें कि कोई प्‍याला आपको बहुत ही प्रिय है। आखिरकार यह एक प्‍याला ही तो है- महज एक प्‍याला, सो अगर यह टूट जाए, तो आपका काम चल सकता है। इसके बाद इससे बड़ी चीजों अथवा व्‍यक्तियों के बारे में सोचते जाएँ, जिनके प्रति आपकी आसक्ति और गहरी है और जिनके खयाल में आप डूबे रहते हैं।
उदाहरण के लिए, याद करें कि जब आप अपनी संतान, अपने पति, अपनी पत्‍नी को आलिंगन में लेते हैं, तो आप एक मर्त्‍य को आलिंगित कर रहे हैं। जब आप यह याद रखेंगे, तभी, यदि इनमें से कोई चल बसता है, तो अशांत हुए बिना आप इस घटना को सह सकते हैं।
जब कोई घटना होती है, तो जो आपके वश में है, वह सिर्फ इतना है : उस घटना के प्रति आपका रुख - आप उस घटना को या तो स्‍वीकार कर सकते हैं या उस पर कुढ़ सकते हैं।
हमें डराने वाली और विस्‍मय-विमूढ़ करने वाली चीज बाह्य घटनाएँ नहीं होतीं, बल्कि यह दृष्टिकोण होता है कि हम उनके बारे में किस तरह सोचते हैं। वस्‍तुएँ हमारी शांति में खलल नहीं डालतीं, उनके महत्‍व की हमारी व्‍याख्‍या हमें बेचैन करती है।
अविवेकपूर्ण धारणाओं के वश में आ कर, जो घटित होता है, उसकी प्रतिक्रिया से अपने को डराना छोड़ें।
चीजें और व्‍यक्ति वैसे नहीं होते जैसा हम चाहते हैं कि वे हों अथवा जैसे वे प्रतीत होते हैं। वे जैसे हैं, वैसे हैं। उनसे हम किस तरह प्रभावित होंगे, यह निर्णय करना हमारे हाथ में है।

साधारण लोगों के बीच अपने को विचारक की तरह पेश न करें और न ही सिद्धांतों की चर्चा करें। इन सिद्धांतों से जो निकलता है, उस पर आचरण करें। इसी प्रकार, किसी भोज में यह न बताएँ कि कैसे खाना चाहिए, बल्कि जैसे खाना चाहिए, वैसे खाएँ।
भेड़ें घास का ढेर ले कर चरवाहे को दिखाने नहीं आतीं कि उन्‍होंने कितना खाया है। वे जो खाती हैं, उसे पचाती हैं और दूध तथा ऊन के रूप में व्‍यक्‍त करती हैं।

हर आदत और हर क्षमता कर्म से ही टिकती है और मजबूत होती है। पैदल चलने की आदत हमें बेहतर चलने वाला बनाती है। नियमित दौड़ना हमें बेहतर धावक बनाता है। यही नियम आत्‍मा से संबंधित मामलों पर भी लागू होता है। जब भी आप गुस्‍सा करते हैं, आपका गुस्‍सा बढ़ता है। अर्थात आप अपनी एक आदत को मजबूत करते हैं; आग में ईंधन डालते हैं।
अगर आप गुस्‍सैल नहीं बनना चाहते हैं, तो इस आदत को ईंधन प्रदान न करें। ऐसा कुछ भी न करें, जिससे यह आदत मजबूत हो। शांत हो कर विचार करें : किस-किस दिन मैंने गुस्‍सा नहीं किया है। पहले मुझे रोज गुस्‍सा आता था, उसके बाद हर दूसरे दिन, फिर हर तीसरे और फिर चौथे दिन। समय बीतने के साथ-साथ आदत कमजोर होती है और अंत में बुद्धिमत्ता उस पर भारी पड़ने लगती है।

बुराई का प्राकृतिक निवास न तो संसार में है, न घटनाओं में और न ही व्‍यक्तियों में। बुराई विस्‍मृति, आलस्‍य या भटकाव से पैदा होती है : वह तब पैदा होती है जब जीवन के अपने वास्‍तविक लक्ष्‍य पर हमारी निगाह केंद्रित नहीं रह जाती।
जब हमें याद रहता है कि हमारा लक्ष्‍य आत्मिक उन्‍नति है, तो हम अपने सर्वोत्तम रूप में होने के लिए प्रयासरत रहते हैं। सुखी होने का मार्ग यही है।

जो ठीक है, तीव्रता से उसका अनुकरण करें। अगर आपकी कोशिश में कमी रह जाती है, तो परिणाम को स्‍वीकार करें और आगे बढ़ें।

स्त्रियों पर सुंदर दिखने का अतिरिक्‍त बोझ होता है, क्‍योंकि उनकी सुंदरता लोगों का ध्‍यान आकर्षित करती है। युवा होने के समय से ही पुरुष उनकी चापलूसी करने लगते हैं या वे कैसा दिखती हैं, सिर्फ इसी आधार पर उनका मूल्‍यांकन करते हैं।
दुर्भाग्‍यवश, इससे स्त्रियों में यह भावना पैदा हो सकती हैं कि उनका काम पुरुषों को प्रसन्‍न करना है और इस तरह उनकी वास्‍तविक विशेषताओं का क्रमश: क्षय होने लगता है। वे यह बाध्‍यता अनुभव करने लगती हैं कि अपने बाह्य सौंदर्य की वृद्धि के लिए प्रयास करें, इसमें समय लगाएँ तथा अपने वास्‍तविक व्‍यक्तित्‍व को कुंठित करती रहें-क्‍योंकि दूसरों को प्रसन्‍न रखने का सरल उपाय यही है।
यही तरीका बहुत-से पुरुष भी अपनाते हैं। शरीर सौष्‍ठव और सुंदरता उनकी दिनचर्या का प्रमुख लक्ष्‍य हो जाता है।
बुद्धिमान लोगों की समझ यह बनती है कि संभव है दुनिया गलत या सतही कारणों से-जैसे, हम कैसा दिखते हैं, हमारा जन्‍म किस परिवार में हुआ है इत्‍यादि-इत्‍यादि-हमें पुरस्‍कृत करती हो, लेकिन वास्‍तविक महत्‍व की बात यह है कि हमारा अंत:करण कैसा है और हम किस प्रकार का व्‍यक्तित्‍व बन रहे हैं।

जीवन के सभी पुरस्‍कारों के लिए हमें एक निश्चित कीमत चुकानी पड़ती है। और अकसर हमारे लिए सर्वश्रेष्‍ठ यही होता है कि हम वह कीमत न चुकाएँ, क्‍योंकि वह कीमत निष्‍ठा की भी हो सकती है; हमें किसी ऐसे व्‍यक्ति की प्रशंसा करनी पड़ सकती है, जिसका हम सम्‍मान न करते हों।

आपके जीवन निर्माण में असंख्‍य लोगों ओर घटनाओं का योगदान है। अत: अपने दृष्टिकोण में कृतज्ञता लाना सीखें : यह आपको सुखी बनाएगा।

डकैतों, ठगों और उनके प्रति जो दूसरे गलत काम करते हैं, अप्रशिक्षित प्रतिक्रिया यही होती है-गुस्‍सा, और उन्‍हें दंडित करने की भावना। गलत काम करने वालों को ठीक से समझने की जरूरत है, ताकि उनके व्‍यवहार के प्रति सही दृष्टिकोण अपनाया जा सके।
गलत काम करने वालों के प्रति उचित प्रतिक्रिया है उनके प्रति दया, क्‍योंकि उन्‍होंने ऐसे विश्‍वास अपनाए हुए हैं जिनकी नींव मजबूत नहीं है तथा वे अच्‍छे और बुरे के बीच फर्क करने की सर्वाधिक मूल्‍यवान मानवीय क्षमता से वंचित हैं। उनके मूल नैतिक संवेग विकृत हो चुके हैं, अत: उनमें आंतरिक प्रशांति की कोई गुंजाइश नहीं बची है।
जब भी कोई व्‍यक्ति कोई मूर्खतापूर्ण काम करता है, तो उससे नफरत करने और उस पर गुस्‍सा करने के बजाय उस पर दया करें।

आम तौर पर हम सभी अपने आपको बेहतर से बेहतर रूप में पेश करते हैं।
जब कोई आपसे अशिष्‍ट बातें कहे, आपकी बातों की ओर ध्‍यान न दे, आपके साथ विचारहीन ढंग से पेश आए या एकदम गलत काम कर बैठे, तब मन ही मन इस तरह सोचिए : 'अगर मैं यह आदमी होता, उन तकलीफों से गुजरा होता जिनसे यह गुजरा है, मेरा भी दिल इसकी तरह बार-बार टूटा होता, मेरे माता-पिता भी इसकी तरह होते, वगैरह-वगैरह, तो मैंने भी ऐसा ही किया होता या ऐसी ही बातें की होतीं।' लोगों के आचरण के पीछे जो इतिहास होता है, उससे हमारा आंतरिक परिचय नहीं होता, इसलिए हमें दूसरों के प्रति सहनशील होना चाहिए और अपनी समझ की सीमाओं को समझते हुए दूसरों के बारे में तत्‍काल कोई फैसला करने से बचना चाहिए।
जब लोगों का आचरण वैसा न हो, जैसा आप चाहते हैं कि वह हो, तो अपने सत् स्‍वभाव को थोड़ा झिंझोड़िए, फिर कंधे उचका कर अपने आपसे कहिए, 'अच्‍छा!' और उस घटना को छोड़ दीजिए।
इसी तरह, जितना संभव हो सके, अपने प्रति भी उतना ही उदार बनें। अपना मूल्‍यांकन दूसरों की तुलना में न करें-यहाँ तक कि आपने अपने लिए जो आदर्श तय किया है, उसकी तुलना में भी नहीं। आदमी की बेहतरी एक क्रमिक प्रक्रिया है-इसमें दो कदम आगे पड़ते हैं, तो एक कदम पीछे भी पड़ता है।
दूसरों के कुकृत्‍यों के लिए उन्‍हें क्षमा करें-बार-बार क्षमा करें। इससे आपका हृदय हलका रहेगा।
और, अपने को भी बार-बार क्षमा करें। फिर, अगली बार पहले से बेहतर तरीके से काम करने की कोशिश करें।

आपके भीतर जो उदारताएँ मौजूद हैं, उनके साथ चलिए। उन्‍हें प्रश्नित न करें-विशेषत: जब आपके किसी दोस्‍त को आपकी जरूरत हो। मित्र का साथ दें। बिलकुल न हिचकिचाएँ।
ऐसा करने से जो असुविधाएँ, समस्‍याएँ या खतरे पैदा हो सकते हैं, उनके बारे में सोच-सोच कर निष्क्रिय न बने रहें। जब तक आप विवेक से परिचालित होते रहेंगे, आप सुरक्षित हैं।
दोस्‍तों की जरूरत के समय उनका साथ देना हमारा फर्ज है।

मन बहलाव और मनोरंजन के लिए भी समय और स्‍थान होता है, लेकिन हमेशा यह ध्‍यान रखना चाहिए कि वे आपके वास्‍तविक लक्ष्‍यों पर हावी न हो जाएँ। अगर आप यात्रा पर हैं और जहाज किसी बंदरगाह में आश्रय लिए हुए है, तो आप पानी के लिए तट पर जा सकते हैं और हो सकता है कोई शंख, मछली या पौधा आपके हाथों में आ जाए। लेकिन सावधान रहिए : जहाज के कप्‍तान का बुलावा किसी भी क्षण आ सकता है। आपका चित्त जहाज पर ही केंद्रित रहना चाहिए। तुच्‍छ चीजों के फेर में पड़ जाना सबसे आसान चीज है। कप्‍तान का आह्वान सुनते ही आपको मन बहलाव के इन साधनों को छोड़ कर दौड़ते हुए, घूम कर देखे बिना, जहाज की ओर जाने के लिए तैयार रहना चाहिए।
अगर आपकी उम्र कुछ ज्‍यादा है, तो जहाज से दूर न जाएँ, अन्‍यथा जब आपको बुलाया जाएगा, आप लौटने में चूक भी सकते हैं।

आपके इर्द-गिर्द जो भी घटित हो रहा हो, उससे बेपरवाह हो कर जो कुछ आपकी शक्ति की सीमा में है, उसका सर्वोत्तम उपयोग करें, बाकी चीजों को निर्लिप्‍त हो कर स्‍वीकार करें।

अपने आदर्शों को जीने के बारे में गंभीर हो जाने का समय यही है। जब आपने यह निश्चित कर लिया है कि आप कुछ निश्चित सिद्धांतों को अपने जीवन में उतारेंगे, तो फिर डिगना कैसा? इन नियमों का पालन ऐसे करें, जैसे वे कानून हों, मानो उनके साथ समझौता करना पाप होगा।
दूसरे आपके विश्‍वासों में साझीदार नहीं बन रहे हैं, इसकी फिक्र न करें। आप वास्‍तव में जो होना चाहते हैं, उसे आप कब तक स्‍थगित रख सकते हैं? आखिर यह आपके जीवन का सवाल है। उसे ऊँचाई पर ले जाने का सवाल है। आप कब तक प्रतीक्षा करेंगे?
अपने सिद्धांतों पर अमल शुरू कर दीजिए- एकदम अभी से। बहाने न बनाएँ। टाल-मटोल न करें। अब आप बच्‍चे नहीं हैं। जितनी शीघ्र आप आत्‍म-उन्‍नति के अपने कार्यक्रम पर अमल शुरू कर देंगे, आप उतने ही सुखी होंगे। जितनी देर करेंगे, तुच्‍छता के बंधन उतने ही मजबूत होंगे। आपको अपने ऊपर ग्‍लानि होती रहेगी।
इसी क्षण प्रतिज्ञा करें कि अब आप अपने आपको निराश नहीं करेंगे। अपने को भीड़ से अलग करें। असाधारण बनने का निश्‍चय करें। जो उचित समझते हैं, उसकी ओर छलाँग लगाएँ-आज और अभी।
 SABHAR 

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