मनुष्य और ईश्वर को जोड़नेवाली कड़ी आस्था है.-Faith is the connecting link between man and God.

एक नास्तिक प्रोफेसर और विद्यार्थी के मध्य ईश्वर के अस्तित्व और विज्ञान के बारे में एक दिन कक्षा में वार्तालाप हुआ.
प्रोफेसर ने अपने नए विद्यार्थी को खड़ा होने के लिए कहा और उससे पूछा :-
प्रोफेसर – क्या तुम ईश्वर में विश्वास करते हो?
विद्यार्थी – हां सर.
प्रोफेसर – क्या ईश्वर शुभ है?
विद्यार्थी – जी सर.
प्रोफेसर – क्या ईश्वर सर्वशक्तिमान है?
विद्यार्थी – जी है.
प्रोफेसर – पिछले साल मेरे भाई की मृत्यु कैंसर से हो गई जबकि वह अंत तक ईश्वर से अच्छा होने की प्रार्थना करता रहा. हममें से बहुत से लोग ईश्वर से ऐसी ही प्रार्थना करते रहते हैं लेकिन ईश्वर कुछ नहीं करता. ऐसा ईश्वर अच्छा कैसे हो सकता है? बताओ.
(विद्यार्थी कुछ नहीं कहता)
प्रोफेसर – लगता है तुम्हारे पास इस बात का कोई जवाब नहीं है. चलो हम आगे बढ़ते हैं. मुझे बताओ, क्या ईश्वर अच्छा है?
विद्यार्थी – जी, है.
प्रोफेसर – और क्या शैतान भी अच्छा है?
विद्यार्थी – नहीं.
प्रोफेसर – लेकिन कहा जाता है कि सब कुछ ईश्वर से ही उत्पन्न हुआ है. तो फिर शैतान कहां से आया?
विद्यार्थी – जी… ईश्वर से.
प्रोफेसर – ठीक है. तो अब तुम मुझे बताओ, क्या संसार में बुराइयां हैं?
विद्यार्थी – जी, हैं.
प्रोफेसर – हां. बुराइयां हर तरफ हैं. और तुम्हारे अनुसार ईश्वर ने सब कुछ बनाया है न?
विद्यार्थी – जी.
प्रोफेसर – तो बुराइयां किसने बनाई हैं?
(विद्यार्थी कुछ नहीं बोलता)
प्रोफेसर – संसार में बीमारी, भुखमरी, युद्ध, अराजकता है. ये सभी और दूसरी बहुत सी बुराइयां संसार में हैं न?
विद्यार्थी – जी, हैं.
प्रोफेसर – इन बुराइयों को किसने बनाया है?
(विद्यार्थी कुछ नहीं कहता)
प्रोफेसर – विज्ञान कहता है कि हम अपनी पांच ज्ञानेंद्रियों से सभी प्रकार का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं. मुझे बताओ, क्या तुमने ईश्वर को कभी देखा है?
विद्यार्थी – नहीं.
प्रोफेसर – क्या तुमने ईश्वर की आवाज़ सुनी है?
विद्यार्थी – नहीं सर.
प्रोफेसर – क्या तुमने कभी ईश्वर का स्पर्श किया, उसका स्वाद या सुगंध लिया? क्या तुम्हें ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव हुआ?
विद्यार्थी – नहीं सर. ऐसा कभी नहीं हुआ.
प्रोफेसर – फिर भी तुम उसमें आस्था रखते हो!
विद्यार्थी – … जी.
प्रोफेसर – लेकिन विज्ञान के अनुसार तुम्हारे ईश्वर के अस्तित्व का कोई वैधानिक, तर्कसंगत, अनुभवाधारित कोई प्रमाण नहीं है. इस बारे में तुम क्या कहोगे?
विद्यार्थी – कुछ नहीं. मुझे केवल अपनी आस्था पर विश्वास है.
प्रोफेसर – बहुत खूब! लेकिन विज्ञान तुम्हारी इस कोरी आस्था को दो कौड़ी की भी नहीं मानता.
विद्यार्थी – मैं जानता हूं, सर. क्या मैं आपसे कुछ प्रश्न कर सकता हूं?
प्रोफेसर – हां, पूछो क्या पूछना चाहते हो.
विद्यार्थी – क्या ठंडा या ठंड जैसा कुछ वास्तव में होता है?
प्रोफेसर – हां, इसमें क्या संदेह है!
विद्यार्थी – नहीं सर. आप गलत कह रहे हैं.
(कक्षा में अब गहन शांति छा जाती है)
प्रोफेसर – क्या? तुम कहना क्या चाहते हो?
विद्यार्थी – सर, ऊष्मा या ताप कम या अधिक हो सकता है – जैसे निम्नताप, उच्चताप, चरमताप, परमताप, या फिर शून्य ताप आदि. लेकिन ठंड जैसा कुछ नहीं होता. हम शून्य से 273 डिग्री नीचे के तापमान को छू सकते हैं जब कोई ऊष्मा नहीं होती पर उससे नीचे नहीं जा सकते. ठंड जैसा कुछ नहीं होता. ठंड केवल एक शब्द है जिससे हम ताप की अनुपस्थति को वर्णित करते हैं. हम ठंड को नहीं माप सकते. ताप ऊर्जा है. ठंड ताप के ठीक विपरीत नहीं है बल्कि उसकी अनुपस्थिति है.
(कक्षा में सभी इस बात को समझने का प्रयास करने लगते हैं)
विद्यार्थी – और अंधकार क्या है, सर? क्या अंधकार जैसी कोई चीज होती है?
प्रोफेसर – यदि अंधकार नहीं होता तो भला रात क्या होती है?
विद्यार्थी – आप गलत कह रहे हैं, सर. अंधकार भी किसी चीज की अनुपस्थिति ही है. प्रकाश कम या अधिक हो सकता है, मंद या चौंधियाता हुआ हो सकता है, झिलमिलाता या लुपलुपाता हो सकता है, लेकिन यदि प्रकाश का कोई स्रोत नहीं हो वह अवस्था अंधकार की होती है. नहीं क्या? वास्तव में अंधकार का कोई अस्तित्व नहीं होता. यदि ऐसा होता तो हम अंधकार को और अधिक गहरा बना पाते, जैसा हम प्रकाश का साथ कर सकते हैं.
प्रोफेसर – मैं समझ नहीं पा रहा कि तुम क्या साबित करना चाहते हो?
विद्यार्थी – मैं यह कहना चाहता हूं कि आपका दृष्टिकोण दोषपूर्ण है.
प्रोफेसर – दोषपूर्ण! तुम ऐसा कैसे कह सकते हो?
विद्यार्थी – आप द्वैत की अवधारणा को मान रहे हैं. आप कह रहे हैं कि जिस प्रकार जीवन और मृत्यु हैं उसी प्रकार अच्छा और बुरा ईश्वर होता है. आप ईश्वर की धारणा को सीमित रूप में ले रहे हैं… वह जिसे आप माप सकते हैं. क्या आप जानते हैं कि विज्ञान इसकी व्याख्या तक नहीं कर सकता कि विचार क्या होता है. आप विद्युत और चुंबकत्व के प्रयोग करते हैं लेकिन आपने इन्हें न तो देखा है और न ही इनको पूरी तरह से जान पाए हैं. आप मृत्यु को जीवन के ठीक विलोम के रूप में देखते हैं जबकि मृत्यु का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है, वह जो जीवन की अनुपस्थिति मात्र है.
अब आप मुझे बताएं सर, क्या आप अपने छात्रों को यह नहीं बताते कि मनुष्यों की उत्पत्ति वानरों से हुई है?
प्रोफेसर – यदि तुम्हारा आशय प्राकृतिक विकासवाद की प्रक्रिया से है तो… हाँ बताता हूँ.
विद्यार्थी – क्या आपने अपनी आँखों से इस विकास की प्रक्रिया को घटते देखा है?
(प्रोफेसर मुस्कुराते हुए अपना सर न की मुद्रा में हिलाता है, वह समझ गया है कि यह बहस किस दिशा में जा रही है)
विद्यार्थी – चूंकि आज तक किसी ने भी विकास की प्रक्रिया को घटते हुए नहीं देखा है और किसी ने यह सिद्ध भी नहीं किया है कि यह प्रक्रिया अनवरत है, क्या फिर भी आप इसे अपने छात्रों को दावे से नहीं पढाते हैं? ऐसा है तो आप वैज्ञानिक में और एक उपदेशक में कोई फर्क रह जाता है?
(कक्षा में खुसरफुसर होने लगती है)
विद्यार्थी – (ऊंचे स्वर में) क्या कक्षा में कोई ऐसा है जिसने प्रोफेसर का मष्तिष्क देखा हो?
(सारे विद्यार्थी हंसने लगते हैं)
विद्यार्थी – क्या यहाँ कोई है जिसने प्रोफेसर के मष्तिष्क को सुना हो, छुआ हो, सूंघा, चखा, या अनुभव किया हो?
शायद यहाँ ऐसा कोई नहीं है. इस प्रकार, विज्ञान के स्थापित मानदंडों के अनुसार मैं यह कह सकता हूँ सर कि आपके दिमाग नहीं है. मेरी बात का बुरा न मानें सर, लेकिन यदि आपके दिमाग ही नहीं है तो हम आपकी शिक्षाओं पर कैसे भरोसा कर लें?
(कक्षा में शांति छा जाती है. प्रोफेसर विद्यार्थी की ओर टकटकी लगाए देखते हैं. उनका चेहरा गहन सोच में डूबा है)
प्रोफेसर – कैसी बातें करते हो! यह तो हम अपने विश्वास से जानते ही हैं.
विद्यार्थी – वही तो मैं भी कहना चाहता हूँ सर कि मनुष्य और ईश्वर को जोड़नेवाली कड़ी आस्था ही है. यही सभी चर-अचर को गतिमान रखती है.
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ऊपर दिया गया संवाद इन्टरनेट पर चैन ई-मेल के रूप में सालों से घूम रहा है. कहा जाता है कि उस विद्यार्थी का नाम ए पी जे अबुल कलाम था, लेकिन ऐसा दावे से नहीं कहा जा सकता.

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