Chronically lived beautiful practice thread--चिरकाल तक जीवित रहे रक्षाबंधन की सुंदर प्रथा

चिरकाल तक जीवित रहे रक्षाबंधन की सुंदर प्रथा

हिंदुस्तान भर में सावन पूर्णिमा का त्योहार बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है। बहन भाई को राखी बांधती है और भाई उसको कुछ देता है। असल में परंपरा इस राखी के डोरे द्वारा बहन के सिर पर भाई की रक्षा का हाथ रखवा देने की है, जो कभी न हटना चाहिए। प्रतिवर्ष सावन की पूनो को इस बंधन की आवृत्ति होती है। जब कोई लड़की या स्त्री किसी ऐसे पुरुष को राखी बांध देती है, जो उसका भाई नहीं है, तब वह राखी उन दोनों के बीच में भाई-बहन का संबंध स्थापित कर देती है और उस बहन की रक्षा का भार उस भाई पर आ जाता है। अधिकांश पुरुष इस भार को पैसे दे-दिवाकर सिर से उतार देते हैं। और करें भी तो क्या! इतनी राखियां हाथ में पड़ जाती हैं कि समस्या का हल परंपरा ने पैसे या चांदी के दान द्वारा सहज कर दिया है। परंतु आवारा मेघराज ( पुस्तक राखी की लाज के नायक) की गांठ में राखी बांधने के समय पैसे न थे, अथवा वह राखी बांधने वाली अपनी बहन को पैसों से बढ़कर कुछ और देना चाहता था-और उसने वह दिया भी। सन 1941 में झांसी जिले के ‘सकरार’ नामक गांव में एक डाका पड़ा। गिरोह नामी सरदार शेरसिंह का था। गिरोह में एक आदमी था, जिसने एक लड़की की रक्षा करने में अपने गिरोह का सारा उद्यम बिगाड़ दिया। इसी तरह बरुआसागर में विख्यात धनी सेठ मूलचंद पर सन् 1922 में डाका पड़ा था। वे लोग सेठ मूलचंद की नवविवाहिता पत्नी की ओर लपके। लेकिन एक डाकू बंदूक लेकर उसके पास खड़ा हो गया। बोला, ‘खबरदार ! इस बहू की ओर मत आना।’ मैंने इन घटनाओं के मूल तत्त्वों को एक गांव और एक समय में गूंथ दिया और इस नाटक को सुखांत बना दिया। एक भावना और भी थी कि सावन के राखीबंद भाई-बहन की कथा को दुःखांत क्यों बनाया जाए? मैं राखी की सुंदर प्रथा के चिरकाल तक जीवित रहने का आकांक्षी हूं। स्त्री को शीघ्र ही आर्थिक स्वतंत्रता मिलेगी और स्त्री तथा पुरुष बराबरी पर आएंगे; परंतु स्त्री को सम्मान की दृष्टि से देखने का यदि यह एक अतिरिक्त साधन-रक्षाबंधन समाज में बना रहे, तो क्या कोई हानि होगी?

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