साहस की नहीं, शील की सराहना होनी चाहिए

साहस की नहीं, शील की सराहना होनी चाहिए
अपने शिष्यों को साथ लेकर महर्षि बोधायन वन विहार के लिए गए। दोपहर होते-होते वे लोग थक गए। भोजन आदि कर वे जब विश्राम करने लगे, तो सभी को नींद आ गई। दिन ढले तक वे सभी सोते रहे। शाम हुई, तो महर्षि ने शिष्यों को पुकारा। शिष्य गुरुदेव की आज्ञा सुनते ही उठ बैठे। पर गार्ग्य ज्यों का त्यों पड़ा रहा। महर्षि को आश्चर्य हुआ। वह गार्ग्य के पास जाकर धीरे-धीरे उसे जगाने लगे। मगर वह तो जगा पड़ा था। गार्ग्य ने कहा, भगवन, एक महाभयंकर सर्प मेरे पैरों में लिपटा सोया पड़ा है। कुछ देर में वह जागेगा, और अपने रास्ते चला जाएगा। इतनी देर धैर्यपूर्वक मेरा अविचल पड़ा रहना ही उचित है।
बोधायन ने देखा कि वाकई गार्ग्य के पैरों में एक काला भुजंग नाग लिपटा था। गुरु और गार्ग्य की बात सुनकर और शिष्य भी वहां आ गए। वहां का दृश्य देखकर उनके माथे पर चिंता की रेखाएं खिंच गईं। किसी ने नाग को भगाने के लिए थोड़ी बहुत आहट भी की, पर गुरु ने उसे रोक दिया। उन्होंने कहा, विषैले जीव भी उन्हीं लोगों को पीड़ा देते हैं, जिनसे वे खतरा महसूस करते हैं। जिनके पास आश्रय मिलता है, उन्हें वे भी स्नेह करते हैं।
दो घड़ी के बाद सर्प की नींद खुली और वह पास की झाड़ी की ओर अपने बिल में चला गया। शिष्य उठा, तो महर्षि ने उसे छाती से लगा लिया और उसके शील की भूरि-भूरि प्रशंसा की। दूसरे शिष्य मैत्रायण ने कहा, गुरुदेव, यह तो साहस का कार्य था। आप गार्ग्य को साहसी क्यों नहीं कहते, शीलवान क्यों कह रहे हैं? महर्षि ने जवाब दिया, भद्र, शील से ही साहस की शोभा है। दुःशील के लिए दुस्साहस करने वाले निंदनीय होते हैं। सराहा वही साहस जाता है, जो विवेक, धैर्य और सदाचरण से युक्त हो।
विषैले जीव भी उन्हीं लोगों को पीड़ा देते हैं, जिनसे वे खतरा महसूस करते हैं।


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