अपने कृत्य में मनुष्य स्वतंत्र है या परतंत्र?

फिर तुम दूसरा पैर
नहीं उठा सकते
कमाल ने अपने गुरु संत कबीर से पूछा, अपने कृत्य में मनुष्य स्वतंत्र है या परतंत्र? मनुष्य कर्म करने में बंधा है कि मुक्त है? मैं जो करना चाहता हूं, वह कर सकता हूं या नहीं? कमाल वैसे तो कबीर के पुत्र थे, पर इस समय वह पुत्र की हैसियत से नहीं, शिष्य की भांति पूछ रहे थे।
कबीर ने बेटे की चित्तभूमि को परखा भी सही। उन्होंने कहा, तुम्हारे सवाल का जवाब अभी देता हूं। पहले पानी में भीगी इस कथरी को पंखा झलकर सुखा दो। कमाल ने कथरी को पंखा झलना शुरू किया। जैसे ही उसने कथरी को सुखाया, कबीर ने कहा, कमाल, अपना एक पैर उठाकर खड़ा हो जा।
कमाल एक पैर उठाकर खड़े होने लगे। अपनी जगह खड़े होते-होते वह फिर अपना सवाल दोहराने लगे। कबीर ने तत्काल कहा, हां, मुझे मालूम है तुम्हारा सवाल। पहले तुम एक पैर पर खड़े तो हो जाओ।
कमाल ने वैसा ही किया। उसने अपने पिता का नहीं, गुरु का कहा माना था। कबीर को यदि वह पिता के रूप में देख रहे होते, तो शायद और भी कुछ पूछते। पर वह चुपचाप अपना बायां पैर उठाकर खड़े हो गए।
कबीर ने कहा, अब तू दायां भी उठा ले। कमाल ने कहा, आप कैसी बातें करते हैं? तो कबीर ने तुरंत कहा, यही है, तुम्हारे सवाल का जवाब। कमाल स्तब्ध होकर कबीर को देखने लगे। कबीर ने कहा, अगर तू चाहता पहले, तो दायां पैर भी उठा सकता था। मगर अब नहीं उठा सकता। एक पैर उठाने को आदमी सदा स्वतंत्र है, लेकिन एक पैर उठाते ही तत्काल दूसरा पैर बंध जाता है। कर्म करने में इतनी ही स्वतंत्रता है। जैसे ही तुम कर्म कर लेते हो, उसे बदलने या उसके एवज में दूसरा कर्म करने में बंध जाते हो। परिणाम पर बस नहीं रह जाता।

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