संतों के प्रवचन का अर्थ है, आपको उपयुक्त बना देना।

मोक्ष का तो अर्थ ही है मोह का क्षय, मोह का नाश। ज्योंही मोह आदि विकार नष्ट होंगे आप अपने मूल स्वरूप में चले जाएंगे। इसलिए संतों के प्रवचन से आपका मूल स्वरूप ही प्रकट होता है। संतों के प्रवचन का अर्थ है, आपको उपयुक्त बना देना। अब आप अपने प्रयास को जारी रख सकते हो। जब आप विकारों से मुक्त हो गए, तो आप ब्रrा बन गए। प्रयास केवल विकारों के नाश तक ही सीमित है। फिर प्रयास भी शिथिल हो जाता है। प्रयास की कोई आवश्यकता नहीं होती। जैसे कोई कीचड़ में गिर जाए, तो निकलने का प्रयास ठीक है, लेकिन कीचड़ से निकल कर अब क्या प्रयास करेगा। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि- यही आठ मार्ग हैं जिसे पतंजलि अष्टांग योग कहते हैं। इन्हीं से मनुष्य अपने विकारों को नष्ट करता है। आज संसार के सभी विचारक इस चिंता में पड़े हैं कि मनुष्य को दुखों से कैसे मुक्त किया जाए। सभी लोग केवल यही चिंता कर रहे हैं कि मनुष्य दुखों से कैसे मुक्त हो, लेकिन मुक्त होने का प्रयास कोई नहीं कर रहा है। पतंजलि जैसे संतों ने जिन मार्ंगो को बताया उसका भी अनुसरण कोई नहीं कर रहा है। पूरी मनुष्य जाति असहाय बनकर विकारों के सामने हाथ जोड़कर खड़ी है। हमें अब अपनी ओर से इस महाविनाश को रोकने के लिए थोड़ा प्रयास करना है। मेरा मानना है कि प्रत्येक मनुष्य जब अपना आत्म कल्याण करने लगेगा, तो देश में एक ऐसा समाज बनेगा जिसे सर्वात्म कल्याण कहा जाएगा। ऐसे समाज में कोई दुखी, अशांत और बीमार नहीं होगा, क्योंकि दुख हमारे कारण ही हमें घेरता है। दुखी होने में हमारी कोई सहायता नहीं करता। दुख और सुख दोनों के हम स्वयं कारण होते हैं। प्रत्येक मनुष्य का मूल स्वरूप स्वस्थ और प्रसन्न रहना है। यही उसकी मूल प्रकृति है। जागरूक व्यक्ति अकाल मृत्यु को प्राप्त नहीं होता। भगवान बुद्ध कहते हैं, ‘जो भी करते हो सोच-समझ कर करो।’ सोच-समझ कर किया गया कोई भी काम अनैतिक नहीं होता। मनुष्य अगर दुखी है, चिंताग्रस्त और उदास है तो उसका कारण वह स्वयं है क्योंकि किसी ने भी उसे दुखी, चिंताग्रस्त और उदास होने के लिए नहीं कहा है। वह दुखी होना चाहता है। इसलिए वह दुखी है। जो सुखी रहना चाहता है, वह सुखी है। बीमार भी वही पड़ता है जो बीमार होना चाहता है।

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