संवेदना जितना बांटे, वह बढ़ती है

सवाल है कि प्रेम और करुणा सबसे अधिक सुख क्यों प्रदान करते हैं? इसका कारण है कि हमारी अपनी प्रकृति उसे सबसे अधिक संजोती है। मानवीय अस्तित्व के मूल में ही प्रेम की आवश्यकता है। इसका कारण है आपस में निर्भर रहने की भावना और जरूरत। व्यक्ति चाहे कितना ही योग्य और कुशल क्यों न हो, उसे अकेले छोड़ दिया जाए तो वह जी नहीं सकता। कोई अपने सामान्य दिनों में कितना ही बलशाली और स्वतंत्र क्यों न हो, जब बीमार होता है या उम्र ढलने लगती है तो दूसरों के सहारे निर्भर होना ही पड़ता है।
मनुष्यों के संबंध में ही यह बात लागू नहीं है। एक-दूसरे पर निर्भरता प्रकृति का आधारभूत नियम है। बड़े जीव ही नहीं, कई छोटे से छोटे कीड़े-मकोड़े भी सामाजिक जीव हैं जो बिना किसी धर्म, कानून अथवा शिक्षा के अपनी प्रकृति को पहचान कर आपसी सहयोग से जीवित रहते हैं। भौतिक घटनाओं  का सूक्ष्मतम रूप भी परस्पर निर्भरता से ही चलता है। सागर, बादल, जंगल, फूल और अस्तित्व के सभी रूप एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं। अगर वह न हों तो एक-दूसरे के बिना वे घुल जाते हैं और सड़ जाते हैं।
हम दूसरों की सहायता पर इतने निर्भर हैं कि प्रेम की आवश्यकता हमारे अस्तित्व के मूल में है। इसलिए हमें एक सच्चे उत्तरदायित्व की भावना और दूसरों की भलाई के लिए सच्ची चिंता की आवश्यकता है। मनुष्य कोई मशीन की बनाई वस्तु नहीं है। यदि ऐसा होता तो मशीनें स्वयं हमारा दुःख दूर कर देतीं और जरूरतों को भी पूरा कर सकतीं। पर चूंकि हम केवल भौतिक प्राणी ही नहीं हैं, इसलिए केवल बाहरी विकास पर सुख की उम्मीद रखना गलत है।
हमारे ब्रह्मांड के सृजन और बदलाव के जटिल प्रश्न को परे रख कर हम कम से कम इस पर तो सहमत हो सकते हैं कि हममें से हर एक अपने माता-पिता की संतान या उन्हीं का विस्तार हैं। गर्भ में हमारा आना हमारे माता-पिता की एक बच्चे की चाह के निर्णय से हुआ। ऐसे निर्णय, उत्तरदायित्व और परोपकार की भावनाओं पर आधारित होते हैं। इसीलिए हमारे गर्भ में आने के क्षण से माता -पिता का प्रेम हमारे निर्माण की ओर अग्रसर होता है।
अपने विकास के प्रारंभ से ही हम पूरी तरह अपनी माता की देखभाल पर निर्भर होते हैं। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार, एक गर्भवती स्त्री की मानसिक स्थिति का सीधा भौतिक प्रभाव अजन्मे बच्चे पर पड़ता है। क्योंकि एक बच्चा दूसरों की देखरेख के बिना जीवित नहीं रह सकता। बड़े होने पर भी प्रेम ही उसके लिए सबसे महत्वपूर्ण निर्णायक तत्व है। अतः प्रेम उसका सबसे महत्त्वपूर्ण पौष्टिक तत्त्व है। बचपन का सुख, उस बच्चे के कई प्रकार के भय का शमन और उसके आत्मविश्वास का स्वस्थ विकास सभी सीधे प्रेम पर निर्भर होता है।
यदि हम रोजमर्रा के जीवन को ही देखें तो पाएंगे कि कोई मानवीय संवेदनाओं से भर कर बोलता है तो सुनने में हमें आनंद आता है और हम उसी के अनुसार प्रतिक्रिया देते हैं। दूसरी ओर, यदि कोई व्यक्ति बहुत ही भावशून्य होकर या कर्कशता से बोलता है, तो हम अशांत  हो जाते हैं और चाहते हैं कि वह उस बातचीत को शीघ्र ही समाप्त कर दे।
इसलिए हम सजग हों या ना हों, परन्तु जिस दिन से हम पैदा हुए हैं, मानवीय प्रेम के प्रति हमारी आवश्यकता हमारे रक्त में है।
मेरा विश्वास है कि प्रेम की आवश्यकता के बिना कोई  पैदा नहीं होता और न ही उसके बिना रह सकता है। कोई भी भौतिक वस्तु फिर चाहे वह कितनी ही सुन्दर या मूल्यवान क्यों न हो, हममें प्रेम की भावना नहीं भर सकती क्योंकि हमारा अस्तित्व और सच्चा चरित्र चित्त की इसी प्यास और जरूरत पर टिका हुआ है। प्रेम और संवेदना जितना बांटे, वह बढ़ती है।


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