अंतस की खोज

यह संपूर्ण सृष्टि परिवर्तन और विनाश के मूलाधार पर टिकी है। कदाचित यही कारण है कि सतत परिवर्तन के रूप में सृष्टि विन्यास की मनोरम लीला हमें चारों ओर दिखाई देती है। फिर भी क्या हमने कभी सोचा है कि निरंतर बह रही हवा इतनी तेजी से कहां पहुंचना चाहती है। साहिल से सिर टकराती नदी सतत प्रवाह द्वारा कहां पहुंचना चाहती है। यही नहीं, बल्कि सतत गतिमान चांद व तारे कहां पहुंचना चाहते हैं। कहां है इनकी मंजिल? इस सृष्टि का सवरेत्कृष्ट, सर्वाधिक परिष्कृत प्राणी यानी हम धन, पद, प्रतिष्ठा, यश आदि के पीछे दौड़ते हुए बगैर ठिठके कहां पहुंचना चाहते हैं? कहां है हमारी मंजिल? कोई भी वस्तु, पद आदि जब तक हमें नहीं मिलती है तब तक हमें उसकी चाहत होती है। उसके मिलते ही हमारी दृष्टि कहीं और जा अटकती है और लगता है कि हमारे हाथ ज्यों के त्यों खाली हैं। कभी हम धन के पीछे, तो कभी यश तो कभी अन्य भौतिक उपलब्धियों के पीछे दौड़ते ही रहते हैं, किंतु इससे हमारे अंतस में मौजूद प्यास पर कोई फर्क नहीं पड़ता। जैसे ही उपलब्धियां हासिल होती जाती हैं, वैसे ही हमारे अंतस की प्यास बढ़ती जाती है। यश की कामना करने वाला यश व पद के प्रति आशंकित और ज्यादातर धनी व्यक्ति अधिकाधिक धन मिलने पर और भी कंजूस होता चला जाता है। हम इसी प्रकार दिन रात दौड़ते रहते हैं। 1इसका क्या कारण है? कहीं ऐसा तो नहीं कि अंतस की इस प्यास को खोज की इस अभीप्सा को हम समझ न पा रहे हों और गलत स्थानों पर समाधान खोजने की चेष्टा कर रहे हों। निश्चित रूप से ऐसा ही है। साहिल से और तमाम अवरोधों से टकराती गंगा को इस बात का अहसास हो भी कैसे सकता है कि उसे सागर की तलाश है। सागर तक पहुंचने की सामथ्र्य वह जुटा सके इसीलिए प्रकृति ने उसे प्रवाह रूपी गति दी है। ये स्वाभाविक है कि ध्यान व समाधि को छोड़कर हमें सारी भौतिक उपलब्धियां बाहर ही प्राप्त होती हैं। इसलिए हम सोच भी क्या सकते हैं। गुरुनानक, महात्मा बुद्ध, महावीर और शंकराचार्य जैसे महापुरुषों ने चेतना की इस प्यास को समझकर उसे परमात्मा से जोड़ा। तभी ये सभी महापुरुष परम शांति को उपलब्ध हो सके।

SK

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