′मैं′ का ही ताला

ins/01-08-2014

एक साधु किसी गांव से गुजर रहा था। रास्ते में बारिश होने लगी। उसका एक मित्र साधु उसी गांव में रहता था। उसने सोचा कि चलो, उसके पास रुक जाता हूं। मिलना भी हो जाएगा और रात भी कट जाएगी। रात आधी हो रही थी। फिर भी वह उससे मिलने चला गया। उसने दरवाजा खटखटाया। भीतर से आवाज आई, कौन है?
उसने सोचा कि उसका मित्र साधु उसे आवाज से पहचान लेगा। उसने अपना नाम बताए बगैर कहा, मैं हूं। इसके बाद भीतर से कोई उत्तर नहीं आया। उसने बार-बार दरवाजा खटखटाया, पर कोई नहीं बोला। उसने जोर से कहा, तुम मेरे लिए दरवाजा क्यों नहीं खोल रहे हो? भीतर से आवाज आई, तुम कौन नासमझ हो, जो अपने को ′मैं′ कहते हो? ′मैं′ कहने का अधिकार सिवा परमात्मा के और किसी को नहीं है। थोड़ी देर इधर-उधर घूमकर वह फिर उसी कोठरी पर आया। इस बार दरवाजा खटखटाने के बाद फिर उसी आवाज में उत्तर आया। इस बार उसने कहा कि तू ही है। भीतर बैठे साधु ने कहा कि तू है, तो मैं भी है ही। परमात्मा के मंदिर में दो का प्रवेश नहीं है। जाओ, पहले अपना मैं खोकर आओ। तीसरी बार वह साधु आया ही नहीं। महीनों बाद उस कुटिया के द्वार खुले। भीतर परमात्मा को याद कर रहा साधु बाहर आया। उसने देखा कि उसका मित्र चौखट पर खड़ा है। साधु ने अपने मित्र को गले लगाया और कहा कि तुमने बताया क्यों नहीं? चौखट पर खड़ा साधु बोला कुछ नहीं, उसके गले से लिपट गया। इस पर उस साधु ने कहा, मित्र, तुमने तो चौखट पर खड़े-खड़े ही वह पा लिया, जो मैं जिंदगी भर बंद कुटिया में रहकर भी नहीं पा सका। प्रभु के द्वार पर ′मैं′ का ही ताला है। जो उसे तोड़ देता है, वह पाता है कि द्वार तो सदा से ही खुले थे।


प्रभु के द्वार पर ′मैं′ का ही ताला है। जो उसे तोड़ देता है, वह पाता है कि द्वार तो खुले ही थे।

अंतर्यात्राsk

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