पूर्णता का बोध

आरुणि नाम के ब्रह्मविद पंडित ने अपने पुत्र श्वेतकेतु से कहा, किसी आश्रम में जाकर तुम ब्रह्मचर्य की साधना और वेदों का अध्ययन करो। कुमार श्वेतकेतु एक आचार्य की सेवा में चला गया। बारह वर्ष तक वहां रहा। वेद पढ़कर लौटा। उसे अपनी विद्या का बड़ा गर्व हो गया। पिता आरुणि ने एक दिन उसे बुलाकर पूछा, ‘तुम्हारे गुरु ने क्या वह रहस्य भी बताया, जिससे सब कुछ जान लिया जाता है?’
श्वेतकेतु उलझन में पड़ गया। तब आरुणि ने कहना शुरू किया, कुछ नदियां पूर्व की ओर बहती हैं, और कुछ पश्चिम की ओर। किंतु वे नदियां बनीं कैसे? समुद्र से जो भाप उठी थी, उसी से वर्षा हुई, और वे नदियां बन गईं। वह पानी बहकर समुद्र में पहुंचा। समुद्र में पहुंचकर उन नदियों का पानी यह नहीं कहता कि मैं अमुक नदी का पानी हूं। इसी तरह सत से जो उपजा, वह नहीं जानता कि उसकी उत्पत्ति सत से हुई है। वह बड़ा सूक्ष्म तत्व है। अणु के अंदर जो तत्व छिपा हुआ है, उस अव्यक्त को कौन जानता है? परंतु वह है। आरुणि ने आगे कहा, उस वटवृक्ष का एक फल उठा ला। श्वेतकेतु फल उठा लाया। पिता के कहने पर उसने फल तोड़ दिया। उसके अंदर बहुत सारे छोटे-छोटे दाने उसने देखे। आरुणि ने श्वेतकेतु से कहा, जिसके अंदर ‘कुछ भी नहीं’ दिखता, उसी में से तो ′सब कुछ′ का उद्भव होता है।
श्वेतकेतु ने कहा, पिताजी, आपको यह सब पहले ही पता था, तो मुझे यह ज्ञान प्राप्त करने के लिए बाहर क्यों भेजा? आरुणि ने समाधान किया, ऐसा इसलिए, क्योंकि निर्दोष ज्ञान पिता के पास नहीं, गुरु के पास ही पाया जा सकता है। गुरु अर्थात अंतर्निहित पूर्णता का बोध, और वह बोध लौकिक संबंध से नहीं, आध्यात्मिक सत्य से ही मिलता है।

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