दुख का निवारण कैसे हो?

दुख को जीवन का शाश्वत सत्य बताया गया है। सवाल यह है कि दुख का निवारण कैसे हो? इसकी खोज में अनंत काल से मनीषियों ने अपना जीवन अर्पित किया और पाया कि दुख का कारण है और इसका निवारण भी है। दुख के कई कारण हैं। सबसे बड़ा कारण है चाह, इच्छा या कामना। चाह का न होना और अनचाहे का हो जाना दुख का मूल कारण है। दुख का दूसरा कारण है, हमारा शरीर जो रोगधर्मा है। शरीर के धारण करते ही रोग व पीड़ा का जन्म हो जाता है। कई बच्चे तो जन्मते ही रोग के शिकार हो जाते हैं। कई रोगों पर तो नियंत्रण हो चुका है, परंतु अभी अनेक रोग लाइलाज हैं। वृद्धावस्था में कुछ ज्यादा ही रोग उत्पन्न होते हैं। रोग से उत्पन्न पीड़ा व रोग के उपचार के खर्च से रोगी और परिजन दोनों दुखी रहते हैं। चाह का बदला रूप है आकांक्षा। हम जीवन में ऊंचा पद, यश और कीर्ति चाहते हैं। हम चाहते हैं कि हमारा नाम अखबार में छपे, टीवी पर आए। दुनिया का ऊंचे से ऊंचा पद या पुरस्कार पाने की लालसा प्रत्येक व्यक्ति में होती है। सफल तो एक होता है, शेष सभी दुखी होते हैं। आकांक्षा, प्रगति या विकास की जननी है, परंतु दुख का मूल भी है।1आकांक्षा अपने आप में बुरी नहीं है, परंतु जब यह ममत्व व संग्रह की प्रवृत्ति से जुड़ जाती है तो यह न केवल स्वयं के लिए दुख का कारण बनती है, बल्कि पूरे समाज में विग्रह और विषमता का कारण भी बनती है। संग्रह की प्रवृत्ति से लोभ और कपट पैदा होता है। संग्रह करने वाला स्वयं तो दुखी होता ही है, दूसरे भी दुखी होते हैं। आकांक्षा जन्म देती है अहं और लोभ को। अहं से पैदा होता है क्रोध और संघर्ष। विजयी बनने की आकांक्षा उचित-अनुचित की सीमा समाप्त कर देती है। जब तक आकांक्षा और संग्रहवृत्ति बनी है, शोषण का यह चक्रव्यूह बरकरार रहेगा। सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था का आधार शोषण होने से व्यक्ति चाहकर भी शोषण के जाल से मुक्त नहीं हो पाता। साधनों की प्रचुरता के बावजूद अनेक लोग सुखी महसूस न करने पर आनंद की खोज में अन्यत्र भटकते हैं। कुछ लोग यश-कीर्ति में आनंद खोजते हैं तो कुछ कलाकार, साहित्यकार, राजनेता, समाजसेवी आदि बनते हैं। जो इन क्षेत्रों में भी सुखी नहीं होते वे अंतस की खोज प्रारंभ कर अध्यात्म में रमण करते हैं, परंतु ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम है जो अध्यात्म में सही जगह पर पहुंच जाएं।

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