हमारी जिंदगी को परिपूर्ण बनाने के लिए

वैचारिक बदलाव जब बदलाव शुरू होता है तब समय अच्छा या बुरा नहीं होता। अच्छा या बुरा होता है उस समय में जिया गया हमारा कर्म, जो हमारे चरित्र की व्याख्या करता है। आज जरूरत है बदलते हुए पर्यायों को समझने की। ऐसा इसलिए, क्योंकि जो युग के साथ चल न सके, उसकी भाषा में बोल न सके, उस शैली में जी न सके वह फिर समय की दस्तक को कैसे सुनेगा? नए बनते समाज में तरह-तरह के दिनों को मनाने को लेकर लोगों को शिकायत रहती है। इस परिप्रेक्ष्य में हमारा यही कहना है कि वक्त इंसानी जज्बात से परे नहीं होता। वक्त का भी एक समाजशास्त्र और मनोविज्ञान है, जैसे इस धरती पर घट रही हर घटना का, जिससे इंसानों का कुछ-न-कुछ सरोकार है। सूरज का उगना सिर्फ एक भौगोलिक घटना नहीं है, वह जिंदगी में नएपन का आगाज भी होता है। अंधेरा हमें डराता है, इसलिए रात निराशा की प्रतीक है। हम वक्त की हर करवट को अपने मन की हलचलों से जोड़कर देखते हैं। इसलिए इस या उस बहाने से सेलिब्रेट करते हैं। न्यू ईयर डे, डॉटर्स डे, मदर्स डे, फादर्स डे, फ्रेंडशिप डे जैसे दिन साल में कम से कम एक बार अपने पुराने रिश्तों को मजबूत करने और खुश हो जाने के लिए उकसाते हैं। हमें खुश होना चाहिए कि अपनी बेहद व्यस्त जिंदगी में हम उन बातों के लिए वक्त निकालना सीख गए हैं, जिनके बिना समाज बना नहीं रह सकता। बहाना कुछ भी हो, अगर उसमें जिंदगी है तो फिर शिकायत कैसी? इसका मतलब यह भी हुआ कि अब हम किसी से स्नेह करने पर यह बात मन में नहीं रखेंगे, शब्दों और आयोजनों के जरिये इसे जाहिर करेंगे और इस खूबसूरत अभिव्यक्ति को पाश्चात्य विचार कहकर खारिज नहीं कर देंगे। वर्तमान परिवेश में बदलता मानवीय आदर्शो का भूगोल न हमें पुरातन विचारों के प्रति झुकने देता है और न नएपन की उपयोगिता पर आत्मतृप्त होने देता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि दोनों के बीच संघर्ष जारी है। कहां, कौन, कैसे, किन मूल्यों को जिए, यह कहना कठिन है। आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक बदलावों के साथ-साथ पारिवारिक व निजी रिश्तों को जाहिर करने के तरीकों का भी हिसाब होना जरूरी है। हमारी जिंदगी को परिपूर्ण बनाने के लिए जरूरी है कि जो भावनाएं हमारे अवचेतन मन में आती हैं, उन्हें बयान करने का सिलसिला जोर पकड़े ताकि हम तलाक या अलगाव की समस्या से मुक्ति पा सकें।

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