असली आँखें तो हमारे मन की आँखें होती हैं।

INS/27/28/04/2014

वृक्ष के नीचे एक योगी रहा करता था।वह सदा मौन रहता था। किसी के भी सवाल का कोई जवाब नहीं देता था। कोई फल ले आता तो वह खा लेता था। कुछ लोग तो यहाँ तक कहते थे कि वह बहरा व गूँगा है।

एक दिन एक सांड उस प्रदेश में घुस आया। उस बरगद के वृक्ष के पास गया, जिसकी छाया में योगी बैठा हुआ था। लोग घबरा गये। वे चिल्लाने लगे, "योगी महाराज, भाग जाइये। नहीं तो सांड आप पर आक्रमण कर देगा।"

पर योगी बिना हिले-डुले वहीं बैठा रहा। सांड थक गया था। वह योगी के पास आया, दो क्षणों तक खड़ा रहा और फिर जमीन पर लेट गया। दृश्य को देखकर लोगों ने तरह-तरह के अर्थ निकाले।एक ने कहा, "यह योगी बहरा और गूँगा ही नहीं है, अंधा भी है। नहीं तो सांड को आता हुआ देखकर चुप क्यों रह जाता?"

दूसरे ने कहा, "ऐसी मूर्खता-भरी बातें मत करो। ऐसा कहना तो घोर अपराध है। ये एक महायोगी हैं इसी वजह से यह घमंडी सांड भी उनके सामने शांत होकर बैठ गया। इनके पास अदबुत व अमोघ शक्तियाँ हैं। इस महायोगी का यहाँ रहना हमारे नगर के लिए बहुत श्रेयस्कर है।
" फिर उस योगी की महानता को लेकर नगर भर में प्रचार भी होने लगा।
उस दिन से योगी को देखने बड़ी संख्या में लोग आने लगे। जो आते थे, कोई न कोई भेंट उसे दे जाते थे। पर योगी उन भेंटों को अपने लिए नहीं रखता था। उसे देखने आनेवाले अन्य भक्तों को वह दे देता था। योगी के त्याग गुण पर लोग उसकी प्रशंसा के पुल बांधने लगे।


कुछ लोग योगी से अपनी समस्याएँ बताते थे। पर वह कोई उत्तर नहीं देता था। समस्या बतानेवाले अपनी ही तरफ़ से कोई हल ढूँढ़ निकाल लेते थे और कहते थे, "ऐसा करना ही ठीक होगा न स्वामी। ऐसा करने से हमारी भलाई होगी न?"

योगी की व्यवहार-शैली बड़ी ही विचित्र होती थी। लगता था, सुन रहा है और नहीं भी सुन रहा है। बीच-बीच में 'हाँ' के भाव में सिर्फ सिर हिला देता था। कभी-कभी 'न' के भाव में भी सिर हिला देता था। अब लोग योगी को संकेत योगी कहकर पुकारने लगे।

अब राजा को योगी के बारे में जानकारी प्राप्त हुई। राजा में योगी को देखने की इच्छा जगी। एक दिन रात को सभी भक्तों के चले जाने के बाद राजा बहुरूपिया बनकर योगी के पास गया।

योगी के सामने जो पत्ता था, उसमें सिर्फ़ दो रोटीयाँ थीं। थोडी दूरी पर एक मशाल जल रही थी। योगी के आँखों में आँसू थे। यह देखकर राजा को लगा कि योगी के जीवन के पीछे कोई दुख भरी कहाने छिपी होगी।

"स्वामी, मैं इस देश का राजा हूँ। हो सकता है,आप लोगों की दृष्टि में गूँगे, बहरे और अंधे हों। आपको समझ न सकने के कारण आप पर वे यह दोष मढ़ रहे हैं। मेरी दृष्टि में आप नहीं बल्कि वे ही विकलांग हैं। अब आपके बोलने का अवसर आ गया। कृपया अपने बारे में बताइये," राजा कनकसेन ने योगी से विनती की।

"महाराज, आपकी बातों को सूनने के बाद मैंने मौन-व्रत तोड़ने का निश्चय किया। अपने बारे में बताने के पहले ही मैं भांप गया कि आप कोई महान व्यक्ति-विशेष हैं। सच तो सदा सच होता है। उसकी शक्ति अनुपम होती है। उसके सम्मुख किसी भी प्रकार के मौन या असत्य का अस्तित्व नहीं होता। सच छिपाया नहीं जा सकता," योगी ने गंभीर स्वर में कहा।

योगी की बातों से महाराज जान गया कि योगी का व्यक्तित्व महान है, वह असाधारण व्यक्ति-विशेष है। महाराज में उसके प्रति आदर की भावना बढ़ गयी।

योगी बाद में यों कहने लगा, "महाराज, असली आँखें तो हमारे मन की आँखें होती हैं। ये ब्रह्म नेत्र जो देख रहे हैं, वे सबके सब सच तो नहीं हो सकते। सच्चाइयों का विश्वास दिलाने के लिए झूठ को हम सच बनाते हैं। पर इन मनोनेत्रों के द्वारा ही हम यह समझ पाते हैं कि ये सच नहीं बल्कि झूठ हैं। इसीलिए मैंने निश्चय किया कि ये जो आँखें सच नहीं देख सकतीं, वे किस काम की। तब से लेकर मैंने इन आँखों से देखना बंद कर दिया। उस दिन से इन आँखों से मैं जो भी देखता हूँ, वह मेरे मन को स्पर्श नहीं करता। स्पर्श कर भी ले, पर मेरा मन उसे स्वीकार नहीं करता। इसीलिए देख सकनेवाली आँखों के होते हुए भी मैं अंधा हूँ।"

"महात्मा, जनता आपको केवल अंधा ही नहीं बल्कि बहरा व गूँगा भी समझती है। आपके ऐसे बर्ताव के पीछे क्या कोई सबल कारण है?" राजा ने पूछा।

"है महाराज। सुनिये। मेरी पत्नी का एक ही भाई था। उसे वह बहुत चाहती थी, उसका वह बड़ा आदर करती थी। उसने व्यापार किया और सब कुछ खो दिया। ऋण-भार से वह दबा जा रहा था। मेरी पत्नी से उसकी दुस्थिति देखी नहीं गयी। उसके गिड़गिड़ाने पर मैंने अपनी पाँच एकड़ में से तीन एकड़ भूमि गाँव के सूदखोर के पास गिरवी रख दी और वह रक़म उसे दे दी। मेरे साले ने मुझे वचन दिया था कि शहर में जाकर व्यापार करूँगा और लाभ कमाकर एक साल के अंदर भूमि को गिरवी से छुड़ा दूँगा। पर पूरा एक साल बीत जाने के बाद भी न ही उससे रक़म मिली और न ही वह दिखायी पड़ा। इस बीच सूदखोर रक़म लौटाने के लिए मुझे तंग करने लगा। कोई और उपाय न पाकर पास ही के अपने रिश्तेदार के यहाँ धन ले आने गया।


"महाराज, आपसे यह बात छिपी नहीं है कि गौरव प्रतिष्ठा साधारण गृहस्थ के लिए और देश के राजा के लिए एक समान है। जैसे ही मैंने घर में क़दम रखा, मेरी पत्नी मुस्कुराती हुई सामने आयी। लगता था कि वह कुछ कहना चाहती है। पर मैं उस समय अपने आप में नहीं था। चबूतरे पर मेरा जो अपमान हुआ, वह मुझसे जीर्ण नहीं हो पा रहा था। मैं उसके भाई को और उसके पूरे परिवार को गालियाँ देने लगा। वह रोती-बिलखती घर के पिछवाड़े में दौड़ती हुई चली गयी। "पिछवाड़े में जाकर कुएँ में कूद पड़ी और मर गयी। उसने आत्महत्या कर ली। मैंने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया।

मैं चुपचाप अंदर चला गया तो वहाँ मैंने एक ख़त देखा, जिसमें उसके भाई ने लिखा था कि एक हफ़्ते के बाद धन लेकर लौट रहा हूँ।" कहता हुआ योगी आँसू पोंछने लगा।

यह जानते ही घर के दरवाजे भी बंद किये बिना घर से निकल पड़ा। भटकता रहा। आख़िर नदी के किनारे के इस बरगद के वृक्ष के नीचे मौन धारण किये बैठ गया। उस क्षण से लेकर सबकी दृष्टि में मैं गूँगा हूँ, बहरा हूँ।"

MORAL :-

योगी वह ज्ञानी, विवेकी एवं जिज्ञासु है। उसने अपने आपको स्वयं अंधा, गूँगा और बहरा बना लिया था। वह नहीं चाहता था कि वह किसी बुराई का कारण बने। खुदगर्जों व धोखेबाजों की धूर्तता उससे सही नहीं गयी। इसी कारण उसकी आँखों में आँसू भर आये। यह देखते हुए राजा ने महसूस किया कि योगी का मन अशांत है और उसे शांति चाहिए। इसीलिए राजा चाहता था कि वह यहाँ न रहे और उसके यहाँ सलाहकार बनकर शांत जीवन बिताये। यह तो स्पष्ट है कि राजा के आश्रय में रहकर सुख भोगने की इच्छा उसमें क़तई नहीं थी।"

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